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________________ तृतीय खण्ड। [१८५ __ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(जदि) यदि (समणो) साधु ( आहारे व विहारे ) आहार या विहारमें ( देसं कालं समं खमं उवधिं ते जाणत्ता) देशको, समयको, मार्गकी थकनको, उप• वासकी क्षमता या सहनशीलताको, तथा शरीररूपी परिग्रहकी दशाको इन पांचोंको जानकर ( वदि ) वर्तन करता है (सो अप्पलेवी ) वह बहुत कम कर्मबंधसे लिप्त होता है। विशेपार्थ-जो शत्रु मित्रादिमें समान चित्तको रखनेवाला साधु तपस्वीके योग्य आहार लेने में तथा विहार करनेमें नीचे लिखी इन पांच बातोंको पहले समझकर बर्तन करता है वह बहुत कम कर्मवंध करनेवाला होता है (१) देश या क्षेत्र कैसा है (२) काल आदि किस तरहका है (३) मार्ग आदिमें कितना श्रम हुवा है व होगा ( ३ ) उपवासादि तप करनेकी शक्ति है या नहीं ( ४ ) शरीर बालक है, या वृद्ध है या थकित है या रोगी है। ये पांच बातें साधुके आचरणके सहकारी पदार्थ हैं । भाव यह है कि यदि कोई साधु पहले कहे प्रमाण कठोर आचरणरूप उत्सर्ग मार्गमें ही वर्तन करे और यह विचार करे कि यदि मैं 'प्रासुक आहार आदि ग्रहणके निमित्त जाऊंगा तो कुछ कर्मबंध होगा इस लिये अपवाद मार्गमें न प्रवर्ते तो फल यह होगा कि शुद्धोपयोगमें निश्चलता न पाकर चित्तमें आर्तध्यानसे संक्लेश भाव हो जायगा तब शरीर त्यागकर पूर्वकृत पुण्यसे यदि देवलोकमें चला गया तो वहां दीर्घकालतक संयमका अभाव होनेसे महान कर्मका बन्ध होवेगा इसलिये अपवादकी अपेक्षा न करके उत्सर्ग मार्गको साधु त्याग देता है तथा शुद्धात्माकी भावनाको साधन
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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