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________________ . तृतीय खण्ड। -- भोजनकी भिक्षाको मुनिगण लेते हैं। यहां यह भाव बताया गया है कि 'शेष कन्दमूल आदि आहार जो एकेंद्रिय अनन्तकाय हैं वे तो अग्निसे पकाए जानेपर प्रासुक होजाते हैं तथा जो अनन्त त्रसजीवोंकी खान हैं सो अग्निसे पका हो, पक रहा हो व न पका हो कभी भी प्रासुक अर्थात् जीव रहित नहीं हो सकता है इस कारणसे सर्वथा अभक्ष्य है ॥४८॥ उत्थानिका-आगे इस बातको कहते हैं कि हाथपर आया हुआ आहार जो प्राशुक हो उसे दूसरोंको न देना चाहिये । अप्पडिकुडे पिंड पाणिगय णेव देयमण्णस्स । दत्ता भोत्तुमजोग्गं भुत्तो वा होदि पडिकुट्टो ॥ ४९ ॥ अप्रतिकुष्टं पिंडं पाणिगतं नैव देयमन्यस्मै । दत्वा भोक्तुमयोग्यं भुक्तो वा भवति प्रतिकुष्टः ॥ ४६॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-( अप्रतिकुष्ट पिंड) आगमसे जो आहार विरुद्ध हो ( पाणिगतं ) सो हाथपर आजावे उसे (अण्णस्स णेव देयम् ) दूसरेको देना नहीं चाहिये । (दत्ता भोत्तुमजोग्गं) दे करके फिर भोजन करनेके योग्य नहीं होता है (भुत्तो का पडिकुट्ठो होदि) यदि कदाचित उसको भोग ले तो प्रायश्चितके योग्य होता है। ‘विशेपार्थ-यहां यह भाव है-कि जो हाथमें आया हुआ शुद्ध आहार दूसरेको नहीं देता है किन्तु खालेता है उसके मोह रहित आत्मतत्वकी भावनारूप मोहरहितपना जाना जाता है। भावार्थ-इस गाथाका-जो अमृतचंदकृत टीकामें नहीं है-.. यह भाव है कि जो शुद्ध प्राशुक भोजन उनके हाथमें रक्खा जावे
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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