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________________ १५२] wwwwwwwwwwwar श्रामवचनसारटीका। सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान व चारित्ररूप जो कोई आत्माका निश्चय स्वभाव है उसका नाश सो ही निश्चयसे भंग है ऐसा जिनेन्द्रोंने कहा है। तथा शरीरके अंगके भंग होनेपर अर्थात् मस्तक भंग, अंडकोष या लिंग भंग (वृषणमंग) वातं पीड़ित आदि शरीरकी अवस्था होनेपर कोई समाधिमरणके योग्य नहीं होता है अर्थात लौकिकमें निरादरके भयसे निग्रंथ भेषके योग्य नहीं होता है। यदि कोपीन मात्र भी ग्रहण करे तो साधुपदकी भावना करने के योग्य होता है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने और भी स्पष्ट कर दिया है कि साधु पदके योग्य वही होसका है जो निश्चय रत्नत्रयका आराधन कर सक्ता है । यह तो अंतरङ्गकी योग्यता है । बाहरकी योग्यता यह है कि उसका शरीर सुन्दर व स्वास्थ्ययुक्त व पुरुअपनेके योग्य हो । उसके मस्तकमें कोई भंग, लिंगमें भंग आदि न हो, मृगी या बात रोगसे पीड़ित न हो। इससे यह दिखला दिया है कि मुनिका निर्ग्रन्थपद न स्त्री लेसक्ती है न नपुंसक लेसका है। पुरुषको ही लेना योग्य है। जो पुरुष अपने शरीरमें योग्य हो व अपने भावोंमें रत्नत्रय धर्मको पाल सक्ता हो। । । __ यहां ऊपर कही ग्यारह गाथाओंमें-जो श्री अमृतचंद्र आचार्य रुत वृत्तिमें नहीं हैं यह बात अच्छी तरह सिद्ध की है कि स्त्री निर्ग्रन्थपद नहीं धारण कर सक्ती है इसीसे सर्व कर्मोके दग्ध करने योग्य ध्यान नहीं कर सकनेसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं कर सक्ती है। स्त्रियोंमें नीचे लिखे. कारणोंसे वस्त्रत्याग निषेधा है। (१) स्त्रियोंके भीतर पुरुषोंकी अपेक्षा प्रमादकी अधिकता
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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