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________________ तृतीयः खण्डः। [२४३ क्रियाएं कुटिलतासे मरी होती हैं जिनका रुकना जरूरी है। इस लिये वे वस्त्रोंको त्याग नहीं करसती हैं. और विना त्यागे निग्रंथं पद नहीं होसक्ता है.जो साक्षात् मुक्तिका कारण है। : . . . उत्थानिका-और भी स्त्रियोंमें ऐसे दोष दिखलाते हैं जो उनके निर्वाण होनेमें बाधक हैं। चित्तस्साचो तासिं सिथिल्लं अत्तवं च पक्खलणं। विजदि सहसा तामु अ उप्पादो मुहममणुआणं ॥३५॥ चित्तस्रवः तासां शैथिल्यं आतकंच प्रस्खलनं । विद्यते सहसा तासु च उत्पादः सूक्ष्ममनुष्याणां ॥३५॥ अन्वयसहित सामान्यार्थ-(तासिं) उन स्त्रियोंके (नित्तस्सावो) चित्तमें कामका झलकाव (सिथिल्लं) शिथिलपना (सहसा अत्तवं च पक्खण) तथा यकायक ऋतु धर्ममें रक्तका बहना (विजदि) मौजूद है ( तासु अ सुहममणुआणं उप्प दो ) तथा उनके शरीरमें सूक्ष्म मनुष्योंकी उत्पत्ति होती है। विशेषार्थ-उन-स्त्रियोंके चित्तमें कामवासना रहित आत्मतत्वके अनुभवको बिनाश करनेवाले कामकी तीव्रतासे.रागसे गीले परिणाम होते हैं तथा उसी भवसे मुक्तिके योग्य परिणामों में चित्तकी दृढ़ता नहीं होती है। वीर्य हीन शिथिलपना होता है इसके सिवाय उनके यकायक प्रत्येक मासमें तीन तीन दिन पर्यंत ऐसा रक्त वहता है जो उनके मनकी शुद्धिका नाश करनेवाला है. तथा. उनके., शरीरमें सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंकी उत्पत्ति हुआ करती है। भावार्थ-स्त्रियोंके स्त्री वेदका ऐसा ही, उदय है कि जिससे उनका मन काम भोगकी तृष्णासे सदा जलता रहता है। ध्यानको.
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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