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________________ -१३६] . श्रीप्रवचनसारटोका। . मात्र भी (संगत्ति) परिग्रह है ऐसा जानकर (जिणवरिंदा) जिनवरेंद्रोंने ( अप्पडिकम्मत्तिम् ) ममता रहित भावको ही उत्तम (उद्दिट्ठा) कहा है (किं किंचनत्ति तकं) ऐसी दशामें साधुके क्या २ परिग्रह हैं यह मात्र एक तर्क ही है अर्थात् अन्य उपकरणादि परिग्रहका विचार भी नहीं होसक्ता । विशेषार्थ-अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप जो मोक्ष है उसकी प्राप्तिके अभिलाषी साधुके शरीर मात्र भी जब परिग्रह है तब और परिग्रहका विचार क्या किया जा सक्ता है। शुद्धोपयोग लक्षणमई परम उपेक्षा संयमके बलसे देहमें भी कुछ प्रतिकर्म अर्थात ममत्व नहीं करना चाहिये तब ही वीतराग संयम होगा ऐसा जिनेन्द्रोंका उपदेश है। इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि मोक्ष सुखके चाहनेवालोंको निश्चयसे शरीर आदि सब परिग्रहका त्याग ही उचित है । अन्य कुछ भी कहना सो उपचार है। भावार्थ-इस गाथाका भाव यह है कि वीतराग भावरूप परम सामायिक जो मुनिका मुख्य निश्चय चारित्र है वही उत्तम है, यही मोक्षमार्ग है व इसीसे ही कर्मोकी निर्जरा होती है । इस चारित्रके होते हुए शरीरादि किसी पदार्थका ममत्व नहीं रहता है। शुद्धोपयोगमें जबतक रागद्वेषका त्याग न होगा तबतक वीतराग भाव उत्पन्न नहीं होगा । यही उत्सर्ग मार्ग है। इसके निरन्तर रखनेकी शक्ति न होनेपर ही उन शुभ. कार्योंको किया जाता है जो शुद्धोपयोगके लिये उपकारी हों। उन शुभ कार्योंकी सहायता लेना ही अपवाद मार्ग है । इससे आचार्यने यह बात दिखलाई है कि भाव लिंगको ही मुनिपद मानना चाहिये । जिस भावसे
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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