SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३२] श्रीप्रवचनसारटोका। भावार्थ-उत्सर्ग मार्ग वह है जहां शुद्धोपयोग रूप परम सामायिक भावमें रमणता है। वहांपर शरीर मात्रका भी किंचितः ध्यान नहीं है। वास्तवमें यही भाव मुनि लिंग है, परन्तु इस. तरह लगातार वर्तन होना दीर्घ कालतक संभव नहीं है। इसलिये वीतराग संयमसे हटकर सराग संयममें साधुको आना पड़ता है। सराग संयमकी अवस्थामें साधुगण अपने शुद्धोपयोगके सहकारी ऐसे उपकरणोंका ही व्यवहार करते हैं । शरीरको जीवित रखनेके लिये उसे निर्दोष आहार देते हैं। बैठते, उठते, धरते आदि कामोंमें जीवरक्षाके हेतु पीछीका उपकरण रखते हैं। शरीरका मल त्याग करनेके लिये और स्वच्छ होनेके लिये कमंडल जल सहित रखते हैं तथा ज्ञानकी वृद्धिके हेतु शास्त्र रखते हैं । इन उपकरणोंसे संयमकी रक्षा होती है। शास्त्रोपदेश करना, ग्रन्थ लिखना, विहार करना आदि ये संबकार्य सरागसंयमकी अवस्थाके हैं। इसी कालके वर्तनको ' अपवाद मार्ग' कहते हैं। वास्तवमें साधुओंके अप्रमत्त और प्रमत्त गुणस्थान पुनः पुनः आता जाता रहता है। इनमेंसे हरएककी स्थिति अंतर्मुहूर्तसे अधिक नहीं है । जब साधु अप्रमत्त गुणस्थानमें रहते तब वीतराग संयमी व उत्सर्ग मार्गी होते और जन प्रमत्त गुणस्थानमें आते तब सराग संयमी व अपवादमार्गी होते हैं । साधुको द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव देखकर जिसमें संयमकी रक्षा हो उस तरह वर्तन करना चाहिये । कहा है-मूलाचार समसार अधिकारमें. दवं खेत्तं कालं भावं.सत्तिच सुद्छु णाऊण। . माणमयणं च तहा साहू चरण समावरा ॥१४॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy