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________________ Aer wwwwwwwwwwwnnnn AAAAAA १३. श्रीप्रवचनसारटीका । .: जिनेश्वर ! न ते मत पटकात्रपात्रहो, विमृश्य सुखकारणं खयमशक्तकैः कल्पितः । अथायमपि सत्पथस्तव भवेद्वथा नग्नता, न हस्तसुलभे फले सति तरुः समारहाते ॥ १ ॥ परिग्रहवतां सतां भयमवश्यमापद्यते, प्रकोपपरिहिंसने च परुषानृतव्याहृतो । ममत्वमथ चोरतो खमनसश्च विभ्रान्तता, कुतो हि कलुषात्मनां परमशुक्लसद्ध्यानता ॥ ४२॥ भावार्थ-हे जिनेश्वर ! आपके मतमें ऊन व कपास व रेशमके वस्त्र व वर्तनका ग्रहण साधुके लिये नहीं माना गया है। जो लोग अशक्त हैं उन्होंने इनको शरीरके सुखका कारण जानकर साधुके लिये कल्पित किया है । यदि यह परिग्रह सहित पना भी मोक्ष मार्ग हो जावे तो फिर आपके मतमें नग्नपना धारण वृथा होगा क्योंकि जब नीचे खड़े हुए हाथोंसे ही वृक्षका फल मिल सके तब कौन ऐसा है जो वृथा वृक्षपर चढ़ेगा। जिनके पास परिग्रह होगी उनको चोर आदिका भय अवश्य होगा और यदि कोई चुरा लेगा तो उसपर क्रोध व उसकी हिंसाका भाव आएगा तथा कठोर व असत्य वचन बोलना होगा तथा उस पदार्थपर ममता रहेगी । कदाचित् अपना अभिप्राय किसीकी वस्तु विना दिये लेनेका हो जायगा तो अपने मनमें उसके निमित्तसे क्षोभ होगा व आकुलता बढ़ेगी ऐसा होनेपर जिनके मनमें कलुपता या मैलापन हो जायगा उनके परम शुक्लध्यानपना किस तरह हो सकेगा? इस लिये यही यथार्थ है कि परिग्रहवानके पित्तकी शुद्धि नहीं हो सकी है ॥ २६ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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