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________________ १२२ ] . . श्रीप्रवचनसारटोका । तीन हैं । फिर स्त्रीको तदभव मोक्ष होती है इसके निराकरणकी प्रधानतासे 'पेच्छदि णहि इह लोग' इत्यादि ग्यारह गाथाएं हैं । ये गाथाएं श्री अमृतचन्द्रकी टीकामें नहीं हैं। इसके पीछे सर्व उपेक्षा संयमके लिये जो साधु अप्तमर्थ है उसके लिये देश व कालकी अपेक्षासे इस संयमके माधक शरीरके लिये कुछ दोष रहित आहार आदि सहकारी कारण ग्रहण योग्य है । इससे फिर भी अपवादके विशेष व्याख्यानकी मुख्यतासे “ उवयरणं जिणमग्गे " इत्यादि ग्यारह गाथाए हैं, इनमेंसे भी उस टीकामें ४ गाथाएं नहीं हैं । इस तरह मूल सूत्रोंके अभिप्रायसे तीस गाथाओंसे तथा अमृतचन्द्र कृत टीकाकी अपेक्षासे बारह गाथाओंसे दूसरे अंतर अधिकारमें समुदाय पातनिका है। अब कहते हैं कि जो भावोंकी शुद्धिपूर्वक बाहरी परिग्रहका त्याग किया जाये तो अभ्यंतर परिग्रहका ही त्याग किया गया। गहि णिरवेक्खो चाओ ण हवदि भिक्खुस्स आसवविमुद्धी । अविसुद्धस्स य चित्ते कह णु कम्मक्खओ विहिओ ॥ २२॥ नहि निरपेक्षस्त्यागो न भवति भिक्षाराशयविशुद्धिः। अविशुद्धस्य च चित्ते कथं नु कर्मक्षयो विहितः ॥ २२ . अन्वय सहित सामान्यार्थ-(णिरवेक्खो) अपेक्षा रहित (चाओ ) त्याग (नहि.) यदि न होवे तो ( मिक्खुस्स ) साधुके (आसवविसुद्धी ण हवदि) आशय या चित्तकी विशुद्धि नहीं होवे । (य) तथा (अविसुद्धस्स चित्ते) अशुद्ध मनके होनेपर ( कह णु) किस तरह (कम्मक्खओ) कर्मोंका क्षय (विहिओ ) उचित हो र्थात् न हो।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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