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________________ १०० ] श्रीप्रवचनसारोका | स्वभाव मात्र जानते तथा संसार - नाटकके इप्टा समान उनमें मत्त्व नहीं करते । इस तरह साधुका व्यवहार बहुत ही पवित्र परम वैराग्यमय, जीवदया पूर्ण व जगत हितकारी होता है। साधुका मुख्य कर्तव्य निज शुद्धात्माका अनुभव है क्योंकि यही साधुका मुख्य साधन है जो आत्मसिद्धिका साक्षात् उपाय है । श्री मूलाचार अनगारभावना अधिकार में साधुओंका ऐसा कर्तव्य बताया है: ते होंति णिन्वियारा थिमिदमदी पदिहिदा जहा उदधी । पियमेसु दढव्वदिणो पारन्तविमग्गया समणा ॥ ८५६ ॥ जिणवयणभासित्थं पत्थं च हिंद च धम्मसंजुत्तं । समभोवारजुत्तं पारतहिदं कथं करेंति ॥ ८६० ॥ भावार्थ-वे मुनि विकार रहित होते हैं, उनकी चेष्ठा उहतवासे रहित थिर होती है, वे निश्चल समुद्रके समान क्षोभ रहित होते हैं, अपने छः आवश्यक आदि नियमोंमें दृढ़ प्रतिज्ञावान होते हैं तथा इस लोक व परलोक सम्बन्धी समस्त कार्योंको अच्छी तरह विचारते व दूसरोंको कहते हैं । ऐसे साधु ऐसी कथा करते हैं जो जिनेन्द्र कथित पदार्थोको कथन करनेवाली हो, जो श्रोताओंक ध्यानमें आसके व उनको ' गुणकारी हो इसलिये पथ्य हो, व जो हितकारिणी हो व धर्म संयुक्त हो, जो आगमके विनय सहित हो व इसलोक परलोकमें कल्याणकारिणी हो । वास्तवमें जैन श्रमणोंका सर्व व्यवहार अत्यन्त उदासीन व मोक्षमार्गका साधक होता है । इस तरह संक्षेपसे आचारकी आराधना आदिको कहते हुए साधु महाराजके बिहारके व्याख्यानकी मुख्यतासे चौथे स्थलमें तीन गाथाएं पूर्ण हुई ॥ १९ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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