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________________ te] श्रीप्रवचनसारटीका । परमात्म पदार्थके विचारमें सहकारी कारण समता और शीलके समूह तपोधन सो श्रमण हैं, परम समाधिक घातक शृंगार, वीर व रागद्वेषादि कथा करना सो विकथा है । इन भक्त, क्षपण, आवसथ, विहार, उपधि, श्रमण तथा विकथाओंमें साधु महाराज अपना ममताभाव नहीं रखते हैं । भाव यह यह है कि आगमसे विरुद्ध आहार विहार आदिमें वर्तनेका तो पहले ही निषेध है अतः अत्र साधुकी अवस्थामें योग्य आहार, विहार आदिमें भी साधुको ममता न करना चाहिये। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बताया है कि मिन कार्योको साधुको प्रमत्त गुणस्थानमें करना पड़ता है उन कार्योमें भी साधुको मोह या ममत्व न रखना चाहिये-उदासीन भावसे उनकी अत्यन्त आवश्यक्ता समझकर उन कामोंको करलेना चाहिये परन्तु अतरंगमें उनसे भी वैरागी रहकर मात्र अपने गृहात्मानुभवका प्रेमालु रहना चाहिये । शरीररक्षाके हेतु भोजनं काना ही पड़ता है परन्तु आहार लेनेमें बड़े धनवान घरका व निर्धनका. सरस नीरसका कोई ममत्व न रखना चाहिये-शस्त्रोक्त विधिसे शुद्ध भोजन गाय गोचरीके समान ले लेना चाहिये। जैसे गौ भोजन करते हुए संतोषसे अन्य विकल्प न करके जो चारा मिले खा लेती हैं वैसे साधुको जो मिले उसीमें ही परम संतोषी रहना चाहिये। उपवासोंके करनेका भी मोह ममत्व व अभिमान न करना चाहिये। जब देखे कि इंद्रियोंमें विकार होनेकी संभावना है व शरीर सुखिया स्वभावमें जारहा है तव ही उपवासरूपी तपको परम उदासीन भावसे कर लेना चाहिये। जिससे कि ध्यानकी सिद्धि हो यही मुख्य
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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