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________________ तृतीय खण्ड। [६५ विशेपार्थ-जो लाभ अलाभ आदिमें समान चित्तको रखनेवाला श्रमण तत्त्वार्थश्रद्धान और उसके फलरूप निश्चय सम्यग्दर्शनमें 'जहां एक निन शुद्धात्मा ही ग्रहण करने योग्य है ऐसी रुचि होती है तथा वीतराग सर्वज्ञसे कहे हुए परमागमके ज्ञानमें और उसके फलरूप स्वसंवेदन ज्ञानमें और दूसरे आत्मीक अनन्त सुख आदि गुणोंमें सर्व काल तल्लीन रहता हुआ तथा अठाईस मूलगुणोंमें अथवा निश्चय मूलगुणके आधाररूप परमात्मद्रव्यमें उद्योग रखता हुआ आचरण करता है सो मुनि पुर्ण मुनिपनेका लाम करता है । यहां यह भाव है कि जो निज शुद्धात्माकी भावनामें रत होते हैं उन हीके पूर्ण मुनिपना होसक्ता है। भावार्थ-यहां यह भाव है कि जो अपनी शुद्ध मुक्त अवस्थाके लाभके लिये मुनि पदवीमें आरूढ़ होता है उसका उपयोग व्यवहार सम्यक्त और व्यवहार सम्यज्ञानके द्वारा निश्चय सम्यक्त तथा निश्चय सम्यग्ज्ञानमें तल्लीन रहता है-रागद्वेपकी कडोलोंसे उपयोग आत्माकी निर्मल भूमिकाको छोड़कर अन्य स्थानमें न जावे इसलिये ऐसे भावलिंगी सम्यग्ज्ञानी साधुको व्यवहारमें 'साधुके अट्ठाईम मूलगुणोंको पालकर निश्चय सम्यकचारित्ररूपी साम्यभावमें तिष्टना हितकारी है । इसीलिये मोक्षार्थी श्रमण अभेद रत्नत्रयरूपी साम्यभावमें तिष्ठनेका उद्यम रखता है । धर्मध्यानमें व शुक्लध्यानमें चेरिन रहता है जिस ध्यानके प्रभावसे बिलकुल वीतरागी होकर पूर्ण निनन्थ मुनि होनाता है । फिर केवली होकर स्नातक पदको उलंघनकर सिद्ध परमात्मा हो जाता है। अनंत कालके लिये अपनी परम शुद्ध अभेद नगरीमें बास प्राप्त कर लेता है।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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