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________________ - - १२] श्रीप्रवचनसारटोका । है, मैं अकेला ही अनादिकालसे इस संसारके चक्करमें अनेक जन्म मरणोंको भोगता हुआ फिरा हूं, मैं अकेला ही अपने भावोंका अधिकारी हूं, मैं अकेला ही अपने कर्तव्यसे पुण्य पापका बांधनेवाला हूं, मैं अकेला ही अपने शुद्ध ध्यानसे कर्म बंधनोंको काटकर केवलज्ञान प्राप्त कर अरहंत होता हुआ फिर सदाके लिये कृतकृत्य और सिद्ध हो सक्ता हूं-मेरा सम्बन्ध न किसी जीवने है न किसी पुद्गलादि पर द्रव्यसे है। (५) संतोप ही परमामृत है। मुझे लाम अलाभ, सुख दुःख में सदा संतोष रखना चाहिये । संसारके सर्व पदार्थोके संयोग होनेपर भी जो लोभी हैं उनको कभी सुख शांति नहीं प्राप्त होसक्ती है। मैंने परिग्रह व आरंभका त्याग कर दिया है, मुझे इष्ट अनिष्ट भोजन वस्तिका आदिमें राग द्वेप न करके कर्मोदयके अनुसार जो कुछ भोजन सरस नीरस प्राप्त हो उसमें हर्प विषाद न करते हुए परम संतोषरूपी सुधाका पान करना चाहिये । इस तरह इन पांच भावनाओंको भावे तथा निरन्तर २४ तीर्थकर, वृषभसेनादि गौतम गणधर, श्री बाहुबलि आदि महामुनियोंके चरित्रोंको याद करके उन समान मोक्ष पुरुषार्थके साधनमें उत्साही बना रहे । आचार्य गाथामें कहते हैं कि जो साधु अपने चारित्र पालनमें सावधान है और निजानंदरूपी घरमें निवास करनेवाला है वह चाहे जहां विहार करो, चाहे गुरुकुलमें रहो चाहे उसके बाहर रहो-शत्रु मित्रमें समानभाव रखनेवाला सच्चा श्रमण या साधु है । वह साधु विहार करते हुए अबसर पाकर जैन धर्मका विस्तार करता है। अनेक अज्ञानी जीवोंको ज्ञान दान करता है, कुमार्गगामी जीवोंको सुमार्गमें दृढ़ करता है
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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