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________________ ६०] श्रीप्रवचनसारटोका। पदार्थों में अपने रागद्वेष रूप सम्बन्धोंको छोड़ता हुआ ( सामण्णे छेदविहूणो भवीय ) अपने शुद्धात्मानुभवरूपी मुनिपढ़में छेद रहित होकर अर्थात् निज शुद्धात्माका अनुभवनरूप निश्चय चारित्रमें भङ्ग न करते हुए (अधिवासे) व्यवहारसे अपने अधिकृत आचार्यके संघमें तथा निश्चयसे अपने ही शुद्धात्मारूपी घरमें (व विवासे) अथवा गुरु रहित स्थानमें (णिच्च विहरतु) नित्य विहार करे । विशेषाथ-साधु अपने गुरुके पास जितने शास्त्रोंको पढ़ता हो उतने शास्त्रोंको पढ़कर पश्चात् गुरुकी आज्ञा लेकर अपने समान शील और तपके धारी साधुओंके साथ निश्चय और व्यवहार रत्नत्रयकी भावनासे भव्य जीवोंको आनन्द पैदा कराता हुआ तथा तप, शास्त्र, वीर्य, एकत्व और संतोष इन पांच प्रकारकी भावनाओंको भाता हुआ तथा तीर्थंकर परमदेव, गणधर देव आदि महान् पुरुपोंके चरित्रोंको स्वयं विचारता हुआ और दूसरोंको प्रकाश करता हुआ विहार करता है यह भाव है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने विहार करनेकी रीति बताई है। जब साधु दीक्षा ले तब कुछ काल तक अपने गुरुके साथ घूमें उस समय उनसे उपयोगी ग्रन्थोंकी शिक्षा ग्रह्ण करे तथा तथा परद्रव्य जितने हैं उन सबसे अपना रागद्वेष छोड देवे । स्त्री पुत्र मित्र अन्य मनुष्य व रागद्वेष ये सब चेतन परद्रव्य हैं। भूमि मकान, वस्त्र, आभूषण, ज्ञानावरणादि आठ कर्म व शरीरादि नोकर्म अचेतन परद्रव्य हैं तथा कुटुम्ब सहित घर, प्रजासहित नगर देश व रागद्वेष विशिष्ट सवस्त्राभूषण मनुष्यादि मिश्र परद्रव्य हैं। इन सबको अपने शुद्धात्माके स्वभावसे भिन्न जानकर इनसे अपने राग
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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