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________________ द्वितीय खंड। [५१ णकी अपेक्षा तीनों भिन्न २ हैं परन्तु एक द्रव्यमें एक समयमें पाए जाते हैं इससे भिन्न नहीं हैं। इस कारण ये कथंचित् भिन्न व कथंचित् अभिन्न हैं। दूसरा दृष्टांत देते हैं पयो व्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्व त्रयात्मकम् ।। ६० ॥ भावार्थ-जिसको यह व्रत है कि मै दूधको खाऊंगा दही न खाऊंगा वह दहीको नही खाता है और निसको दही खानेका व्रत , है वह दही खाता है दूधको नही खाता है परन्तु जिसको यह व्रत , है कि मैं गोरसको नही खाऊगा वह न दहीको खाता है न दूधको पीता है इसलिये यह सिद्ध है कि पदार्थ उत्पाद व्यय धौव्यरूप है। नब दूधका दही बनता हो तब दूध चाहनेवालेको खेद, दही चाहनेचालको हर्ष व दोनो न चाहनेवालेको माध्यस्थ भाव रहेगा। ऐसा वस्तुका स्वभाव जानकर अपने आत्माको सत् पदार्थ निश्चय करके अपनी संसार अवस्थाको नाशकर मुक्तावस्थाके उत्पादका दृढ़ उद्योग हमको करना चाहिये और वह उद्योग एक साम्यभाव है जो रत्नत्रयकी एकतारूप आत्माकी परिणतिमे झलकता है इसलिये साम्य या स्वात्मानुभवका लाभ करना चाहिये ।। ९ ॥ उत्थानिका-आगे यह बताते है,कि उत्पाद व्यय ध्रौव्यका द्रव्यके साथ परस्पर आधार आधेय भाव है इसलिये अन्वयरूप द्रव्यार्थिक नयसे वे द्रव्य ही हैं उप्पादहिदिभंगा विज्जते पज्जएसु पजाया ॥ दम हि संति णियदं तम्हा दम हवदि सच ॥१०॥ उत्पादस्थितिभङ्गा विद्यन्ते पर्यायेपु पर्यायाः । द्रव्यं हि सन्ति नियत तस्माद्दा भवति सर्वम् ॥१०॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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