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________________ द्वितोय खंड। [३८५ परन्तु जो ऐसा अनुभव करता है कि न मैं पर रूप हू, न पर मुझ रूप है, न मैं परका हू, न पर मेरा है-मैं तो एक ज्ञायक स्वभाव हूं वही आत्मध्यानी होता है और वही अपने आत्माको अतींद्रिय, निरालम्ब, अविनाशी, वीतरागी, ज्ञानदर्शनमय अनुभव करता है। वह अपने एक शुद्ध आत्माको ध्रुव मानके सर्व सासारिक सुख दुःख, रुपया पैसा, भाई, पुत्र, मित्र, स्त्री, शरीरादिको अपनेसे भिन्न अनित्य जानता है । इस तरह शुद्ध आत्माका भेदज्ञानपूर्वक अनुभव करते हुए श्रावक या मुनि दर्शनमोहका क्षयकरके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होजाता है । फिर यदि श्रावक है तो श्रावकके व्रतोंसे स्वानुभवकरके चारित्रमोहका बल घटाता है व फिर मुनि होकर समताभावमे लीन हो जाता है । मुनि महाराज पहले धर्मध्यानसे फिर क्षपकश्श्रेणी चढ़ शुक्लध्यानसे परम वीतरागी होते हुए चारित्रमोहका क्षय कर देते हैं पश्चात् तीन घातिया कर्मोका भी नाशकर अनन्त दर्शन, ज्ञान, वीर्य तथा अनन्त सुखको पाकर अरहत परमात्मा होनाते है । अरहंत भगवानको अब ध्यानका फल परमात्मपद प्राप्त होगया । उनको अब चित्त निरोध करके किसी ध्यान करनेकी जरूरत नहीं रहती है-वे निरन्तर आत्माके शुद्ध खभावके भोगमे मगन रहते हुए अतींद्रिय आनन्दका ही खाद लिया करते हैं उनके शेष कर्मोकी निर्जरा होती है इससे उनके उपचारसे ध्यान कहा है। ____ अन्तमें आचार्यने बताया है कि जो रागद्वेष छोड़कर व वीतरागमई 'मुनिपदमें ठहरकर निश्चय रत्नत्रयमई निन शुद्ध आत्माके ध्यान करनेवाले हैं वे मुनि सामान्यकेवली या तीर्थङ्कर
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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