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________________ ३६४ ] श्रीप्रवचनसारटोका । भावार्थ - जो पहले दर्शन मोहकी और तीव्र कषायोके उदयकी कलुपतासे रहित होकर शांत मन हो पंचेद्रियोंके विषयोंको संसारका कारण जान उनसे वैराग्यवान होता है तथा मनको अनेक विषयकषायसम्बन्धी संकल्पनालोसे रोक देता है और निज शुद्ध आत्माके स्वभावमे भलेप्रकार स्थिरता प्राप्त करता है वही आत्मध्यानी है । यही आत्मध्यान आत्माके बंधनोको काटकर आत्माको परमात्मा कर देता है । जहां एकाग्रता होती है उसको ध्यान कहते हैं । शुक्ल ध्यान में तो बिलकुल ध्याताकी बुद्धिपूर्वक एकाग्रता होती है । यद्यपि अबुद्धि पूर्वक कुछ पलटन होती है तथापि ध्याताके अनुभव गोचर न होने से वह शुद्धोपयोगरूप थिरनारूप ही ध्यान कहलाता है । धर्म ध्यानमे शुद्धात्माकी सन्मुखता जहां है उनको शुद्ध ध्यान कहते है | जहां अशुद्ध नावोमे थिरता होती है उसको अशुद्ध ध्यान या आर्तरौद्र ध्यान कहते हैं। जहां ध्यान अतर्मुहूर्त होकर फिर ध्यानकी चिता हो ? फिर ध्यान होजावे इसतरह व्यानकी सतान बहुत देर तक चलती रहे उसको ध्यान संतान कहते हे । जो योगी छ घड़ी रते है उनके ऐती 1 हर्तमे अविर नही रह मार ही जागे कभी भी संतान वर्तती है क्योकि ध्यान एक सता है । हमके मुख्यता होता है जपानचित गव्यमे जाता है-है व ध्यान सदान है । जनके पास करनेी रानीकी सम्हाल है पर्थात् जहां बारह नवा चितवन है या व्याख्यान है अथवा धर्मानुराग 1
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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