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________________ द्वितीय खंड | [ १८७ उत्थानिका- आगे ऊपर के ही भावको दृढ़ करते है - पदाणि पंच दव्वाणि उज्मियकालं तु अत्थिकायत्ति । भण्णं काया पुण वहुप्पदेसाण पचयतं ॥ ४५ ॥ एतानि पंचद्रव्याणि उज्झिनल तु अस्तिकाया इति । भण्यते कायाः पुनः बहुपदेशाना प्रचयच ॥ ४५ ॥ अन्चयसहित सामान्यार्थ - ( एदाणि दव्त्राणि ) ये छः द्रव्य ( उज्झिय काल तु ) काल द्रव्यको छोड़कर ( पंच अत्थिकायत्ति ) पाच अस्तिकाय है ऐसे (भण्णते) कहे जाते है (पुण) तथा ( बहुप्प - देसाण पचयतं कामा) बहुत प्रदेशोके समूहको काय कहते हैं । विशेषार्थ - इन पाच अस्तिकायोंके मध्यमे एक जीव अस्तिकाय ही ग्रहण करने योग्य है। उनमे भी अर्हत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु पाच परमेष्ठीकी अवस्था, इनमेसे भी अरहंत और सिद्ध अवस्था फिर इनमेसे भी मात्र सिद्ध अवस्था ग्रहण करनी योग्य है । वास्तवमे तो या निश्श्रयनवसे तो रागद्वेषादि सर्व विकपालोके त्यागके समयमें सिद्ध जीवके समान अपना ही शुद्धात्मा ग्रहण करने योग्य है यह भाव है । भावार्थ- सुगम है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार पाच अस्तिकायकी सक्षेपमे सूचना करते हुए चौथेस्थलमे दो गाथाए पूर्ण हुई । उत्थानिका- आगे द्रव्योका स्थान लोकाकाशमे है ऐसा बताते है -- लोगालोगेसु णभो धम्माधम्मेहि आददो लोगो 1 सेसे पडुच्च कालो जीवा पुण पोग्गला सेसा ॥ ४६ ॥
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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