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________________ द्वितीय खंड। [१३३ जो भाव कर्म या सराग परिणाम सो ही द्रव्य कर्मोका कारण होनेसे उपचारसे कर्म कहलाता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि राग आदि परिणाम ही कर्म बंधका कारण है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने संसारके बीजको बताया है। यह आत्मा इस अनादि अनंत जगतमें यद्यपि अपने स्वभावकी अपेक्षा निश्चय नयसे सिद्ध परमात्माके समान शुद्ध बुद्ध आनन्दमई तथा कर्मबंधसे रहित है तथापि अपने विभावकी अपेक्षा व्यवहार नयसे अनादि कालसे ही प्रवाहरूप कर्मोसे मैला चला आरहा है । कभी शुद्ध था फिर अशुद्ध हुआ ऐसा कभी नहीं होसक्ता है। शुद्ध सुवर्ण अशुद्ध नहीं होसक्का वैसे ही मुक्तात्मा या परमात्मा कभी अशुद्ध अथवा संसारी नहीं होसक्ता । इस ससारी आत्माके ज्ञानावरण आदि आठ कर्मका बन्ध होरहा है । और इन्ही कोके उदय या फलसे यह ससारी जीव देव, मनुष्य, पशु या नरक इन चार गतियोमेंसे किसी न किसी गतिमें अवश्य रहता है। वहां जैसे बाहरी निमित्त होते है उनके अनुकूल यह मोही जीव रागद्वेष मोह भाव करता है । यह रागद्वेप मोह भाव भी मोह कर्मके असरसे होता है । यह अशुद्ध भाव उसी समय द्रव्य कर्म वर्गणाओको आश्रव रूप करके आत्माके प्रदेशोंसे उनका एक क्षेत्रावगाह रूप बन्ध करा देता है । यह निमित्त नैमित्तिक संबंध है। जैसे अग्निकी उष्णताका निमित्त पाकर जल स्वयं भापकी दशामें बदल जाता है ऐसे ही जीवके अशुद्ध भावोंका निमित्त पाकर कर्म वर्गणाएं स्वयं आकर कभी आठ कर्म रूपसे व कभी सात कर्म रूसे बंध जाती हैं।
SR No.009946
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Gneytattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages420
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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