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________________ श्रीभवचनसार भाषाटीका। [७५ रहता है क्योंकि आत्मा भी एक पदार्थ है । अथवा ज्ञेय पदार्थ जो ज्ञानमें झलकते हैं वे क्षण क्षणमें उत्पाद व्यय प्रौव्य रूप परिणमन करते हैं वैसे ही ज्ञान भी उनको जाननेकी अपेक्षा तीन भंगसे परिणमन करता है । अथवा षट् स्थान पतित अगुरुलघु गुणमें वृद्धि व हानिकी अपेक्षा तीन भंग जानने चाहिये ऐसा सुत्रका तात्पर्य है। भावार्थ-यहां आचार्य ने पहली गाथाके इस भावको स्वयं स्पष्टकर दिया है कि सिद्ध भगवानमें अविनाशी पना होते हुए भी उत्पाद और विनाश किस तरह सिद्ध होते हैं । इसका बहुत" सीधा उत्तर श्री भाचार्य महाराजने दिया है कि हरएक वातु भो जो जगत में है उस हरएक पदार्थमें से उस द्रव्यकी सत्ता सदा बनी रहती है वैसे उसमें अवस्थाका उत्पाद और विनाश भी देखा जाता है वैसे ही सिद्ध भगवानमें भी जानना चाहिये। वस्तु कभी अपरिणामी तथा कूटस्थ नित्य नहीं हो सक्ती है। हरएक. द्रव्य परिणामी है क्योंकि द्रव्यत्व नामका सामान्य गुण सर्व द्रव्योंमें व्यापक है। द्रव्यत्व वह गुण है जिसके निमित्तसे द्रव्य कमी कूटस्थ न रहकर परिणमन किया करे । इस परिणमन स्वभावके ही कारण प्रत्यक्ष भगतमें अपने इंद्रियगोचर पदार्थोंमें कार्य दिखलाई पड़ते हैं। सुवर्ण परिणमनशील है इसीसे उसके कुंडल, कडे, मुद्रिका मादि बन सके हैं तथा मुद्रिकाको तोड़ व गलाकर पीटकर वाली वाले वन सके हैं । मिट्टीके वर्तन व मकान, गौके दुषसे खोवा, खोवेसे लड्डू, बी, पेड़े आदि बन सक्ते हैं। यदि. बदलनेकी शक्ति पुद्गलमें न होती तो मिट्टी, पानी, वायु, अग्नि
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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