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________________ ६८] श्रीमवचनसार भाषाटीका। वह तो आपका ही निज स्वभाव है, उसकी प्रगटता अपने ही पुरुषार्थ से होती है। जितने भी सिद्ध हुए हैं, होते हैं व होंगे वे सर्व ही स्वयंभू हैं। ___ इस कथनसे यह भी वात झलकती है कि यह मात्मा अपने कार्यका बाप ही अधिकारी है । यह किसी एक ईश्वर परमात्माके शासनमें नहीं है । वैज्ञानिक रीतिसे यह अपने परिणामों का आप ही कर्ता और भोक्ता है। से भोजन करनेवाला स्वयं भोनन करता है और स्वयं ही उसका फल भोगता है व स्वयं ही भोजनशा त्याग करे तो त्यागी होजाता है, वैसे यह आत्मा स्वयं अपने छशुद्ध भावोंमें परिणमन करता है और उनका स्वयं फळ भोगता है। यदि आप ही अशुद्ध परिणति छोड़े और शुद्ध भावों में परिमन करे तो यह शुद्ध भावको भोगता है तथा शुद्धोपयोगके अनुभवसे स्वयं शुद्ध होनाता है। इस प्रकार सर्वज्ञकी मुख्यतासे प्रथम गाथा और स्वयंभूकी मुख्यतासे दूसरी गाथा इस तरह पहले स्थल में दो गाथाए पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे उपदेश करते हैं कि अरहंत भगवानके द्रव्यार्थिक नयकी मुख्यतासे नित्यपना होनेपर भी पर्यायार्थिक नयसे अनित्यपना है। भंगविहीणो य भयो, संभवपरिवजिदो विणासोहि विजदि तस्लेव पुणो, ठिदिसंभवणाससमवायो॥ भङ्गविहीनश्च भवः संभवपरिवर्जितो विनाशो हि । विद्यते तस्यैव पुनः स्थितिसंभवनाशसमवायः ॥१७
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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