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________________ ४४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। अनुभोदयेनात्मा कुनरस्तियन्मृत्वा नैरयिकः । दुःखसहरः सदा अभिभृतो अमत्यत्यन्तम् ॥ १२ ॥ सामान्यार्थ-दिला, झूठ, चोरी, कुशील, तृष्णा, धूत रमण, परकी हानि, विषयभोगोंने लोलुपता आदि अशुभोपयोगसे परिणमन करता हुआ आत्मा पाप आंधकर उस पापके उदयसे खोटा दुःखी दरिद्रो मनुष्य होकर व तिच मर्थात् एकेन्द्रो वृक्षादिमे पंचेन्द्री तक पशु होकर अथवा नारकी होकर हज़ारों दुःखोंसे सदा पीड़ित रहता हुआ इस संसार में बहुत अधिक भ्रमण करता है। ___ अन्वय सहित विशेषार्थ-( असुहोदयेण ) अशुम उपयोगके प्रगट होनेसे जो पाप कर्म बंधता है उसके उदय होनेसे (आदा) शात्मा (कुणरो) खोटा दीन दरिद्री मनुष्य (तिरियो। तिर्यंच तथा ( णेरइयो ) नारकी (भवीय ) होकर (मञ्चंत) बहुत अधिक { भमई ) संसारमें भ्रमण करता है। प्रयोजन यह है कि अगुम उपयोग विकाररहित शुद्ध आत्मतत्वकी रुविरूप निश्चय सम्यत्वसे स्था उस ही शुद्ध आत्मामें क्षोभरहित चित्तमा वर्तनारूप निश्चय चारित्रसे विलक्षण या विपरीत है। विपरीत मगिप्रायसे येना होता है तथा देखे, सुने, अनुभव किए हुए पंचेन्द्रि योंके विषयोंकी इच्छामई तो संशरूप है ऐसे अशुभ उपयोगसे जो पाप कर्म बांधे जाते हैं उनके उदय होनेसे यह आत्मा स्वभावसे शुद्ध आमाके आनन्दमयी परमार्थिक सुलसे विरुद्ध दुःखसे दुःखी होता हुमा व अपने स्वभावको भावनासे गिरा हुमा संसारमें खुब ही भ्रमण करता है। ऐसा तात्पर्य है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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