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________________ wwwA ३४1 श्रीप्रवचनसार भाषाढीका । जिस घे पापकर्म असावा घेदनीय आदि भी बांधते हैं तथापि संसार कारण न होनेसे व सम्बतनी भूमिका रहनेखे उपयोगको शुम रहा है। सर्प कथन मुख्यता व गौणताकी अपेक्षासे है। प्रयोजन यह है कि जिस तरह बने शुद्धोपयोगकी रुचि रखकर उसीफी माप्तिका उद्यम करना चाहिये-इसीसे आत्महित है-यहो पुरुषार्थ है जिससे यहां भी स्वात्मानंद होता है और परलोकमें भी परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है।९॥ सानिमा-मागे जो कोई पदार्थको सर्वथा अपरिणामी नित्य टास मानते हैं तथा जो पदार्थको सदा ही परिणमन.. शील क्षणिक हो मानते हैं. इन दोनों एकान्त भावों का निराकरण करते हुए परिणाम और परिणामो मो पदार्थ उनमें परस्पर कथंचितू मभेदभाव दिखलाते हैं। अर्थात् जिसमें अवस्थाएं होती हैं वह द्रव्य नशा उसी अवस्थाएं सिसी अपेक्षा एक ऐमा बताते हैं। पत्थिविणा परिणाम अत्यो अत्यविणेह परिणामो। লুgথা জখী লিলি ??? नास्ति विना परिणामोऽर्थोऽर्य यिनेइ परिणामः । द्रव्यगुणपर्यवस्थोऽर्थोऽस्तिस्यनित्तः ॥ १० ॥ मामाभ्यार्थ-पर्यायके विना द्रव्य नहीं होता है । और, पर्थाय द्रव्यके बिना नहीं होती है । पदार्थ द्रव्यगुण पर्यायमें रहा हुआ अपने अस्तिपनेसे सिद्ध होता है। .. अन्वय सहित विशेश-(भत्थो) पदार्थ (परिणाम
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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