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________________ • २८] . श्रीप्रवचनसार भाषाका । सर्व पदार्थोसे उदासीन होकर अपने आत्माके ही जानने में तन्मय होनाता है अर्थात् पाप ही ज्ञाता तथा बाप ही शेष होजाता है, तथा इस ही ज्ञानकी परिणतिको धार बार किया करता है। तब आत्मा अपने शुद्ध आत्मस्वगावमें लीन है ऐसा कहा जाता है उस समय अनंत गुणोंकी और पर्यायोंको छोड़कर विशेष लक्ष्य में लेने योग्य पर्यायोंका यदि विचार किया जाता है तो कहने में माता है कि उस समय सम्यक्त, ज्ञान, चारित्र तीनों ही गुणोंका परिणमन हो रहा है। सम्यक परिणति श्रद्धा व रुचि रूप है ही, ज्ञान आपको मानता है यह ज्ञानकी परिणति है तथा पर पदार्थसे राग द्वेष न होकर उनसे उदासीनता है तथा निजमें थिरता है यही चारित्रकी परिणति है। भेद नयसे सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप तीन प्रकार परिणतिय हो रही हैं, निश्चय रूप अभेद नयसे तीन भावमई आत्माकी ही परिणति है । इसी कारणसे रत्नत्रयमें परि. णमन करता हुआ आत्मा ही साक्षात् धर्मरूप है। इस ही धर्मको बीतराग चारित्र भी कहते हैं। अतएव इस रत्नत्रयमई वीतराग चारित्रमें परिणमन करता हुआ आत्मा ही वीतराग चारित्र। जैसे अग्निशी उष्णता रूप परिणमन करता हुआ लोहेका गोला अग्निमई दोजाता है वैसे वीतरागमाबमें परिणमन करता हुआ आत्मा सराग होजाता है। जिस समय पांच परमेष्ठोड़ी मक्ति रूप आवसे वर्तन होरहा है उस समय विचार किया जाय कि आत्माके तीन मुख्य गुणोंका किस रूप परिणयन है तो ऐसा समझमें आता है कि सम्पदाटी बीयवे रम्पक गुणा से साँचे रूप परिणमन है तथा ज्ञान गुणका पांच परमेष्टी ग्रहण करने व भक्ति करने
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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