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________________ २२] श्रीप्रवचनसार भांपटीका । • स्वाभाविक आनन्द उपादेय है ऐसा सम्यक्त तथा हमारा आत्मा 'द्रव्य दृष्टि से सर्व ही ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म, रागादि भावकर्म तथा शरीरादि नो कोसे भिन्न है, ऐसा सम्यग्ज्ञान मुख्यतासे ही साक्षात् कमौके बंधको दूर करनेवाला तथा आत्माको पवित्र बनाकर निर्वाण प्राप्त करानेवाला है । अभेद या निश्चय रत्नत्रय एक आत्माका ऐसा आत्मीक भाव है जिसमें सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान सम्यक् चारित्र तीनोंकी एकता हो रही है। यही भाव सुद्ध है और यही भाव ध्यान है इसीसे ही घातिया कर्म जलजाते और • 'अरहंत पद होता है । इस निश्चय चारित्रकी प्राप्तिके लिये जो देशवत या महाव्रत रूप व्यवहार चारित्र पाला जाता है उसमें कुछ सरागता रहती है-वह वीतराग आत्मामें स्थिति रूप चारित्र ' नहीं है क्योंकि जीवोंके हितार्थ धर्मोपदेश देना, शास्त्र लिखना, भूमि शोषते गमन करना, प्रतिक्रमण पाठ पढना आदि नितने कार्य इच्छापूर्वक किये जाते हैं उनमें मंद कषाय रूप संचलन रागका उदय है। इसी कारण इस सराग चारित्रसे जितना. राग अंश है उसके फल स्वरूप पुण्य कर्मका बंध हो जाता है और 'पुण्य कर्मके उदयसे देव गति या मनुष्य गति प्राप्त होती है । "जैसा विशेष पुण्य होता है उतना विशेष पद अहमिंद्र, इन्द, चक्रवर्ती आदिका प्राप्त होता है क्योंकि यह सराग चारित्र भी सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है इसलिये देव या मनुप्यकी पदवो पाकर भी वह भव्य जीव उस पदमें लुब्ध नहीं होता ! उदयमें आए हुए पुण्य फलको समताभावसे भोग लेता है तथा निरंतर भावना रखता है कि कब मैं वीतराग चारित्रको प्राप्त करके निर्वाण
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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