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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका । [ ३६३ होता है | इसके सिवाय उनका उपदेश व उनकी शांत मुद्रा हमें उसी शुद्धोपयोगरूप धर्मको सिखाती है जिसे ग्रहणकर हम भी मोक्षका साधन कर सकें ॥ १०० ॥ उत्थानका- आगे कहते हैं कि उस पुण्यसे परभवमें क्या फल होता है: तेण णराव तिरिच्छा, देविं वा माणुसिं गदिं पय्या । विहविसरियेहिं सया संपुष्णमणोरहा होति ॥ १०१ ॥ तेन नरा वा तिर्यञ्चो देवीं वा मानुषीं गतिं प्राप्य । विभवश्वर्याभ्यां सदा संपूर्णमनोरथा भवति ॥ १०१ ॥ सामान्यार्थ - उस पुण्य से मनुष्य या विर्यच देव या मनुष्यकी गतिको पाकर विभूति व ऐश्वर्य्यसे सदा सफल मनोरथ होते हैं । अन्वय सहित विशेषार्थ - ( तेण ) उस पूर्वमें कहे हुए पुण्य से ( णरा वा तिरिच्छा ) वर्तमानके मनुष्य या तिथेच ( देविं वा माणुसिं गदिं पय्या ) मरकर अन्यभवमें देव या मनुव्यकी गतिको पाकर (विहविस्तरियेहिं सया संपुण्ण मणोरहा होंति ) राजाधिराज संबंधी रूप, सुन्दरता, सौभाग्य, पुत्र, स्त्री आदिसे पूर्ण विभूति तथा आज्ञारूप ऐश्वर्य्यसे सफळ मनोरथ होते हैं । वही पुण्य यदि भोगोंके निदान विना सम्यक दर्शन पूर्वक होता है तो उस पुण्य से परम्परा मोक्षकी प्राप्ति होती है यह भावार्थ है । है ! 4
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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