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________________ NewM ३६० ] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । अन्वय सहित विशेषार्थ-( जो समणो ) मो साधु (णिइदमोहलिट्ठी) तत्वार्थ श्रद्धानरूप व्यवहार पम्यक्त के द्वारा उत्पन्न निश्वर सम्यग्दर्शनमें परिणमन करने दल मोहको नाश कर चुका है, ( आगमकुमलो ) निर्दोष परमागासे रहे हुए परमागमके अग्बामसे उपाधि रहित स्वसंवेदन ज्ञानक्षी चतुराईसे आगमज्ञान प्रवीण है (विरागचरियम्मि मन्मुट्टिो बन, ममिति, गुप्ति मादि बाहरी चारित्रके साधनके चशसे से शुद्धात्मामें निश्चल परिणमारूप वीतराग चारित्रमें वतने घास परम वीत. · राग चारित्रमें भले प्रकार उद्यमी है तथा ( मप्पा मोक्ष रूप महा पुरुषार्थको साधने के कारण महात्मा है वही (धम्मोत्ति विखेसिदो) जीना. गरना, लाम, अलाम आदिमें समताशी भावनामें परिणमन करनेवाला श्रमण ही अभेद नबसे मोह सोम रहित आत्माका परिणामरूप निश्चय धर्म कहा गया है। भावार्थ-जो प्रतिज्ञा श्री कुन्दकुन्दाचार्य महामने पहले की थी कि शुद्धोण्योग या साम्यभावका गैं आश्भर करता हूं, उसीका वर्णन पूर्ण करते हुए इस गाथामें बताया है कि व्यवहार रत्नत्रय द्वारा प्राप्त निश्चय रत्नत्रयमें तिएनेवाला शुद्धोपयोग या साम्यभावका धारी साधु है वही सच्चा साधु है तथा वहीं धर्मात्मा है, वही महात्मा है. वहीं मोक्षका पात्र हैं, बड़ी पर- , मात्माका पद अपने में प्रकाश करेगा । इस गाथाको कहकर आचायेने व्यवहार व निश्चय रत्नत्रयकी उपयोगिताको बहुत अच्छी तरह बता दिया है। तथा यह भी प्रेरणा की है कि जो स्वाधीन होकर निज आत्मीक सम्पत्तिका बिना किसी पापाके सदा ही
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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