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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका । [ ३५० निमित्त कारण है । इसलिये जिस साधुके भावमें निश्चय धर्म नहीं है वह द्रव्य लिंगी है-भावलिंगी नहीं है । भाव लिंगी हुए विना वह परम सामायिक संयम जो वीतराग भावरूप तथा निज मात्मा तल्लीनता रूप है नहीं प्राप्त हो सक्ता है। जहां सामायिक संयम नहीं वहां मुनिपना कथन मात्र है । साधुपदर्भे उसी बातको साधन करना है जिसका अपनेको श्रद्धान है । जो निज आत्माको सबसे मित्र पहचानता है वही भेद भावनाके अभ्यास से निमको परसे छुड़ा सक्ता है । जैसे जो सुवर्णकी कणिकाओं को पहचानता है वही उन कणिकाओं को मिट्टीकी कणिकाओंके मध्यमें से चुन सका है इसलिये भावकी प्रधानता ही कार्यकारी है ऐसा निश्चय रखना चाहिये। ऐसा ही श्री अमृतचंद्र माचायेने समयसार कलश में कहा है: एको मोक्षपयो य एष नियतो दरइतिवृत्यात्मकस्तत्रैव स्थितिमेति यस्तमनिशं ध्यायेच्च तं चेतति ॥ ' तस्मिन्नेव निरंतर विहरति द्रव्यान्तराण्यस्पृशन' सोऽवश्यं समयत्यसारमचिरान्नित्योदयं विन्दति ॥ ये त्वेनं परिहृत्य संवृतिपथ प्रस्थापिते नात्मना लिङ्गे द्रव्यमये वहन्ति ममतां तत्वावबोधच्युताः । नित्योद्योतमखण्डमेकमतुला लोकं स्वभावप्रभा प्राग्भारं समयस्य सारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते ॥ ४८ ॥ व्यवहारविमूढः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः तुपचोधविमुग्वबुद्धयः कलयन्तीह तुपं न तन्दुलम् ॥४९॥. भावार्थ-निध्य करके सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप एक यह आत्मा ही मोक्ष मार्ग है जो कोई उसीमें रात्रि दिन ठहरता
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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