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________________ www wwwwwmvimmmmmmmnann...00 ३५४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । पदार्थ-आत्मा ज्ञान स्वभाव है, स्वभावकी प्राप्ति मोक्ष है. इसलिये मोक्षका चाहनेवाला ज्ञानभावनाको भावै । रागद्वेषसे हुई प्रवृत्ति य निवृत्तिसे इस जीवके कर्म वय होता है । तत्त्वज्ञानके द्वारा उन राग दोषोंसे मोक्ष होजाती है। जैसे चीनसे अंकुर फूटते हैं ऐसे ही मोइबीनसे रागहेप होते हैं इसलिये जो रागढेपको जलाना चाहे उसे ज्ञानकी अगि जलाकर इन दोनाको नहा देना चाहिये। इस रह स्व परके ज्ञानमें मूढ़ताको हटाते हुए दो गाथाओंके द्वारा चौथी ज्ञानकंठिका पूर्ण हुई। इ५ तरह पचीत गाथाओं के द्वारा ज्ञानकंठिकाका चतुष्टय नामका दुस्स अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ९७ ॥ उन्ध निका-मागे वह निश्चय करते हैं दोष रहित अरहंत परमात्मा द्वारा पहे हुए पदायों के शृद्धानके बिना कोई श्रमण या साधु नहीं होता है । ऐसे अडरहित साधुमें शुद्धोपयोग लक्षणको धरनेयाला धर्म भी संभव नहीं है। सत्तापद सचिलेले जो हि व सामपणे । सद्दहदि प सो सरणो, तत्तो धम्ला ण संभयदि ॥ २८ ॥ सत्तासंगखानेतान् सवित्रपान् यो हि नैव भामण्ये । श्रद्दधाति न स श्रमणः ततो धर्मो न संभवति ॥ १८ ॥ सामानार्थ-जो कोई नीव निश्चयसे साधु अवस्थामें सत्ता मावसे एक संबद्धरूप तथा विशेष भावसे भिन्न २ सत्ता सहित इन पदार्थीका शृद्धान नहीं करता है वह भाव साधु नहीं
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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