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________________ ३४६ ] श्रमिवचनसार भापाटीका । जो मोहरागदोसे हिनदि उल जोहमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन । ९५| • यो मोहरागद्वेषान्निहन्ति उपलभ्य जैनमुपदेशम् । स सर्वदुःखमोक्षं प्राप्नोत्यचिरेण कालेन ॥ ९५ ॥ सामान्यार्थ - जो कोई जैन तत्त्वज्ञान के उपदेशको पाकर रागद्वेषोंको नाश करता है वह थोड़े ही कालमें सर्व दुःखों से मुक्ति पाता है । अन्वय सहित विशेषार्थ - (नो) जो कोई मंव्य जीव (जो मुदे उवल) जैन के उपदेशको पाकर (मोहरागदोसे हिदि) मोह रागद्वेपको नाश करती है (स) वह (अचिरेण कालेन ) अल्पकाल में ही (सव्वदुक्खमोवखं पावदि) सर्व दुःखोंसे छूट जाता है । विशेष यह है कि जो कोई भव्यजीव एकेंद्रियसे विकलैंद्रिय फिर पंचेंद्रिय फिर मनुष्य होना इत्यादि दुर्लभपनेकी परम्पराको समझकर अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होनेवाले जैन तत्वके उपदेशको पाकर मोह राग द्वेषसे विलक्षण अपने शुद्धात्माके निश्वक अनुभवरूप निश्चय सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानसे अविनाभूत वीतराग चारित्ररूपी तीक्ष्ण खड्गको मोह राग द्वेष शत्रुओंके ऊपर पटकता है वह ही वीर पुरुष परमार्थरूप अनाकुलता लक्षणो रखनेवाले सुखसे विलक्षण सर्व दुःखका क्षय कर देता है यह है। भावार्थ - आचार्य ने इस गाथामें चारित्र पालने की प्रेरणा की है। तथा वृत्तिकारके भावानुसार यह बात समझनी चाहिये कि मनुष्य जन्मका पाना ही अति कठिन है। निगोद एकेन्द्रीसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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