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________________ ३३०] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । मोहमें वर्सनेवाले जीवके इस तरहका कर्म वय होता है तब रागादिसे रहित शुद्ध पात्मध्यानके बळसे इन रागद्वेष मोहोंका भले प्रकार क्षय करना योग्य है यह तात्पर्य है। भापार्थ-यहां माचार्यने यह प्रेरणा की है कि आत्माके हित चाहनेवाले पुरुषों कर्तव्य है कि वे भात्माको उन काँक वंधनोंसे छुड़ा जिनके कारण वह आत्मा चार गतियोंमें भ्रमण करते हुए भनेक दुःखोंको भोगता है और निराकुल होकर अपनी सुख शांतिचा लाभ सदाके लिये नहीं कर सकता है। क्योंकि नाना प्रकारफे कोका वधन इस अशुद्ध आत्माके उसके अशुद्ध भावोंसे होता है मिन भाको मोह, राग व द्वेष कहते हैं, इस लिये इन भावोंके कारण जो पूर्वबद्ध दर्शन मोहनीय व चारित्र मोदनीय कर्म हैं उनको जड़ मूळसे झात्माले प्रदेशोंसे दूर करके निकाल देना चाहिये जब कारण नहीं रहेगा तब उसका कार्य नहीं रहेगा। यहां इतना समझ लेना चाहिये कि आठों ही प्रकारके कर्माके बंधन कारण ये रागद्वेष मोह हैं । जिन जीवोंने उनका क्षय कर दिया है ऐसे क्षीण मोही साधुके को बंध नहीं होता है, केवल योगोंके कारण ईर्यापथ मानव होता है जो चिनई रहित शरीरपर धूक पड़ने के समान है, निपटता नहीं है। इनके क्षय करने का उपाय सुक्षमतासे जानने के लिये श्री क्षपणासार अन्थका मनन करना चाहिये। मां इतना मात्र कहा जाता है कि पहले दर्शन मोहको और उसके सहकारी अनंतानुबंधी सम्बन्धी रागद्वेषको नाशकर क्षायिक सम्यग्दर्शनका लाभ करना चाहिये फिर श्रावक तथा साधुळे आचरणो पालकर तथा शुद्धो
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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