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________________ Mr ३१४] श्रीमवचनसार भापाटीका । हटाके भीतर मम्यास करता है तो उसके अंतरंगमें कर्म कलकसे रहित भविनाशी आत्मानामा देव जिसकी महिमा एक.आत्मानुभले ही मालूम पड़ती है प्रगट बिराजमान रहा हुआ मालूम होता है । तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोग या साम्यभाव छात्मज्ञा. नसे.ही होता है इसलिये आत्मज्ञानका नित्य अभ्यास करना योग्य है ॥ ८ ॥ ___ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि इस जगतमें प्रमादको उत्पन्न करनेवाला चारित्र मोह नामका चोर है ऐसा मानकर आप्त श्री अरहंत भगवानके स्वरूपके ज्ञानसे जो शुदात्मारूपी चितामणिरल प्राप्त हुआ है.उसकी रक्षाके -लिये ज्ञानी नीक जागता रहता है। . . . . . . जीवो ववगदमोहो, ज्वलको तबमप्पणो सम्भ। . जहदि जदिरागदोले, सो अप्पाणं लहदिसुद्ध८७ जीवो पगतमोर उपलब्धवात्तस्मात्मनः सम्या । जहाति यदि रागद्वेपौ स आत्मानं. लभते शुद्धम् ॥ ८७.॥ सामान्यार्थ-दर्शन मोहसे रहित जीव भले प्रकार :आस्माके तत्वको जानता हुआ यदि रागद्वेषको छोड़ देवे तो वह शुद्ध, मात्माको प्राप्त करे। . . . . . . ; .. अन्वय सहित विशेषार्थ:-(ववगदमोहो जीवो) शुद्धात्म तत्त्वकी रुचिको रोकनेव ले दर्शन मोहको निसने दूरकर दिया है ऐसा सम्यग्दृष्टी आत्मा ( अपणो. तच्च सम्मं उर्वलो) अपने ही शुद्ध आत्माके परमानंदमई .एक स्वभावरूपं तत्त्वको संशय आदिसे रहित भले प्रकार जालता हुमा (जदि रांगदोसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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