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________________ ३१२ ] श्रीप्रवचनसार भापाटीका । करण, अनिवृत्तिकरण नामके परिणामविशेषोंके चलसे जो विशेष भाव दर्शनमोहके क्षय करने में समर्थ हैं अपने आत्मामें जोड़ता है ! 'उसके पीछे जब निर्विकल्प स्वरूपकी प्राप्ति होती है तब जैसे पर्याय रूपसे मोती के दाने, गुणरूपसे सफेदी आदि अभेद नयसे एक हार रूप ही मालूम होते हैं तैसे पूर्वमें कहे हुए द्रव्यगुण पर्याय अभेद नयसे आत्मा ही हैं इस तरह भावना करते करते दर्शनमोहका अंधकार नष्ट होजाता है। भावार्थ - यहां आचार्यने बतलाया है कि जो कोई चतुर पुरुष अरहंत भगवानकी यात्माको पहचानता है वह अवश्य अपने आमाको जानता है । क्योंकि निश्चयनवसे अरहंतकी आत्मा और अपनी आत्मा समान हैं। उसके जानने की रीति यह है कि पहले यह मनन करे | जैसे अरहंत भगवान में सामान्य व विशेष गुण हैं वैसे ही गुण मेरे मात्मामें हैं जैसे अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्याय महंत भगवान में हैं वैसे अर्थ पर्याय और अपने शरीरके आकार आत्माके प्रदेशका बर्तन रूप व्यंजन पर्याय मेरे आत्मामें हैं । जैसे अरहंत अपने गुण पर्शयोंके आाधाररूप असंख्यात प्रदेशी अमूर्ती अविनाशी अखंड द्रव्य हैं वैसे मैं चैतन्यमई अखंड द्रव्य हूं। अपने भावों में इस तरह पुनः स्वरूपमें थिर पुनः विचार करते हुए अपने भाव यकायक अपने होजाते हैं । अर्थात् विचारके समय सविकल्प स्वसंवेदन ज्ञान होता है, थिरताके समय निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान होजाता है । इस तरह वारवार अम्यास किये जानेसे परिणामोंकी विशुद्धता बढ़ती है। इस विशुद्धताकी वृद्धिको आगम में कारणरूप परिणा
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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