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________________ marwimmam श्रीमवचनसार भाषाटीका। [३०९ तं देवदेवदेवं जदिवरवसह गुरुं तिलोयल्स । पणमति जे मणुस्सा, ते सोक्ख अक्खयं ति।। ८५ तं देवदेवदेवं यतिवरवृपभं गुरुं त्रिलोकस्य । प्रणमति ये मनुष्याः ते सौक्य अक्षयं यान्ति ॥ ८५ ॥ सामान्यार्थ-जो मनुष्य उस इंद्रोंके देव महादेवको जो सर्व साधुओंमें श्रेष्ठ है व तीन लोकशा गुरु है प्रणाम करते हैं वे ही अक्षय सुखको पाते हैं। ____ अन्वय सहित विशेषार्थ-(जे मणुस्सा ) जो कोई भव्य मनुष्य आदिक (ते देवदेवदेवं ) उस महादेवको नो देवोंकि देव सौधर्म इन्द्र मादिक भी देव है अर्थात उनके द्वारा आराधनाके योग्य है, (नदिवरवसह) इंद्रियोंके विषयोंको जीतकर अपने शुद्ध आत्मामें यत्न करनेवाले यतियोंमें श्रेष्ठ जो गणधरादिक उनमें भी प्रधान है, तथा (विलोयस्स गुरुं) मनन्तज्ञान भादि महान गुणोंके द्वारा जो तीनलोकका भी गुरु है (पणमंति) द्रव्य और भाव नमस्कारके द्वारा प्रणाम करते हैं तथा पूजते हैं व उसका ध्यान करते हैं (ते) वे उसकी सेवाके फलसे (अक्खयं सोक्ख जति) परम्परा करके भविनाशी अतीन्द्रिय सुखको पाते हैं ऐमा सूत्रका अर्थ है। भावार्थ-यहां आचार्यने उपासकके लिये यह शिक्षा दी है कि जो जैसा भावे सो वैसा होना । अविनाशी अनंत अर्तीद्रिय सुखका निरंतर लाम आत्माकी शुद्ध अवस्थामें होता है। उस अवस्थाकी प्राप्तिका उपाय यद्यपि साक्षात् शुद्धोपयोगमें तन्मय होकर निर्विकल्प समाधिमें वर्तन करना है तथापि परम्परायसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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