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________________ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [३०७ संयम और प्राण संयमके चलते अपने । शुखाल्मामें रिथर होकर समतारसके भावसे परिणमना नो संयम इन दोनोंसे सिद्ध हुआ है, '(सुनो) क्षुधा आदि बारह दोषोंसे रहित शुद्ध वीतराग है, ( सग्यापनगमगकरो ) स्वर्ग तथा केवलज्ञान आदि अनंत चतुष्टय लक्षणरूप मोक्ष इन दोनों के मार्गका उपदेश करनेवाला है, ( अमरालरिंदमहिदो ) उस ही पदके इच्छुक स्वर्गके व भवनात्रकके इन्द्रों द्वारा पूज्यनीक है, तण (लोयसिहरत्थो) लोकके मन शिपरपर विराजित है ऐमा जिन सिद्धका स्वरूप जानना योग्य है। भावार्थ-यहां आचार्य बताया है कि यह शुद्धोपयोगका ही प्रताप है जिसके बलसें श्री जिा सिह परमात्माका स्वरूप प्राप्त होता है | श्री सिद्ध परमात्मा वारतपमें कोई भिन्न पदार्थ नहीं है । यही संसारी आत्मा अब निश्चयतप व निश्चय संयममें उपयुक्त होकर अभ्यास करता है तब आप ही कोंके जावरणसे रहित हो अपनी शक्तिको प्रगट कर देता है। सर्प पर पदार्थोकी इच्छाओंको त्यागकर निज शुद स्वरूपमें लीन होकर ध्यानकी अग्निको जलाना तप है। तथा सर्व इंद्रियों विषयों को रोककर व मुनिके चारित्र द्वारा पृथ्वीकाविणादि छः पायक प्राणियोंका रक्षक होकर शुद्धात्मामें टंटे रहना तथा साम्यभाव परिणमना रागद्वेष न करना सो संगम है। इन तप संयमों के द्वारा ही रागद्वेषादि भाव मल व ज्ञानाचरणादि द्रव्य यक कट जाता है और यह बात्मा शुद्ध बीतराग निन हो जाता है। तब, मरहंत अवस्थामें (वर्ग व मोक्षका कारण जो रत्नत्रय धर्म है उसे
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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