SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 317
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९४] श्रीभवचनसार भाषाटीका । होती है वही कर्मोंकी सत्ताको मात्मा से हटाती है । अर्तीद्रिय सुख आत्माका स्वभाव है इसलिये अविनाशी हैं । यधपि स्वानुभवी छमस्थ जीवोंके धारावाही आत्मसुख नहीं स्वादमें आतr तथापि वह स्वाधीन होनेसे नाशरहित है। धारावाही स्वाद ना' आनेमें बाधक कषाय है | सुखका स्वरूप नाशरूप नहीं है। तथा मात्मिसुख समता रूप है। जितनी समता होगी उतना ही इस सुखका स्वाद भावेगा। इस सुखके भोगमें भाकुलता. नहीं है न यह अपनी जातिको बदलता है। यह सुख तो परमतृप्ति तथा संतोषको देनेवाला है। ऐसा नान भात्मजन्य सुखको ही मुख जानना चाहिये और इंद्रिय सुखको बिलकुल दुःख रूप ही मानना चाहिये । इससे यह सिद्ध किया गया है कि जिप्त पुण्यके उदयसे इंद्रिय मुख होता है उस पुण्यका कारण जो शुभोपयोग है वह भी हेय है। एक साम्यभावरूप शुद्धोपयोग ही ग्रहण करने योग्य है। इस तरह जीवके भीतर तृष्णा पैदा करनेका निमित्त होनेसे' यह पुण्यकर्म दुःखके कारण हैं ऐसा कहते हुए दूमरे स्थलमें चार गाथाएं पूर्ण हुई ॥ ८॥ उत्थानिका-आगे निश्चयसे पुण्य पापमें कोई विशेष नहीं है ऐसा कहकर फिर इसी व्याख्यानको संकोचते हैंगहि मण्णदि जो एवं, पत्थि विसेसोत्ति पुण्णपावाणं हिंडदि घोरमवारं, ससारं मोहसंछण्णो ।। ८१ ॥ .. न हि मन्यते य एवं नास्ति विशेष इति पुण्यपाप्योः। हिण्डति घोरमपार संसारं मोहसंच्छन्नः ॥ ८१ ॥.
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy