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________________ २९६] श्रमिवचनसार भापाटीका । विषयोंको ग्रहण करनेवाली इंद्रिणं काम करने योग्य ठोक' न हों व जबतक इच्छित पदार्थ भोगनेमें न आवे तपतक इंद्रिय सुख पैदा नहीं होता है । यदि दोनोंमें एककी कमी होगी तो यह सुखाभास भी नहीं मासेगा किन्तु उल्टा दुःखरूप ही झलकेगा। बड़ी भारी पराधीनता इस सांसारिक सुखमें है। इंद्रिय ठीक होने, पर भी व चेतन व अचेतन पदार्थ रहने पर भी यदि पर पदार्थीका परिणमन या वर्तन भोगनेवालेके अनुकूल नहीं होता है तो यह सुख नहीं मिलता है । इप्ससे भी बड़ो भारी पराधीनता है । दूसरा दोष यह है कि यह वाधाओंसे पूर्ण है। जबतक चाहे हुए पदार्थ नहीं मिलते हैं तबतक उनके संयोग मिलाने के लिये बहुत ही कष्ट उठाना पड़ता है। यदि पदार्थ मिल जाते हैं और वे अपनी इच्छाके अनुसार नहीं वर्तन, करते हैं तो इस मोही जीवको बड़ा कष्ट होता है और कदाचित् वे नष्ट हो जाते हैं तो उनके थियो. गसे दुःख होता है इसलिये थे इंद्रियसुख बाधाओंसे पूर्ण हैं । तीसरा दोष यह है कि यह इंद्रियनित सुख नाश होजाता है क्योंकि यह माता वेदनीय कर्मफे आधीन है. जिसका उदय बहुत कालता नहीं रहता है । साताके पीछे असाताका उदय हो जाता है निपसे सांसारिक सुख नष्ट हो जाता है । अथवा अपनी शक्ति नष्ट हो जाती है व पदार्थ नष्ट हो जाता है अथवा इप्स इंद्रिय विषयको भोगते हए उपयोग उता जाता है। चौथा दोष यह है कि यह इंद्रियजनित सुख कर्मबन्धका कारण है , क्योंकि इस सुखके भोग तीव्र रागकी प्रवृत्ति होती है। जहां तीन विषयों का राग है वहां अवश्य अशुभ कर्मको बन्ध होता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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