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________________ १९०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । वास त्याग परिग्रह भारको पटक निर्जन वनमें जाकर आत्मध्यान करते हैं । अंतरंग रागादि व मुर्छारूप परिग्रह भाबके लिये बाहरी क्षेत्रादि निमित्त कारणरूप नौकर्म हैं इसीसे उपचारसे क्षेत्रादिश्नो भी परिग्रहके नामसे कहाभाता है । अज्ञानी नीव पुण्यके उदयते चक्री होकर भी घोर उन्मत्त होकर घोर पाप बांध लेते हैं। और सातवें नई तक चले जाते हैं। इसलिये मुख्यतासे ये पुण्य फर्म अज्ञानियों के भीतर विषयोंकी दाहको बहुत ही बसानेमें मबल निमित्त पड़ जाते हैं। जिस कारणले मनोज्ञ सामग्री रहते हुए भी वे अधिक अधिक सामग्रीकी चाहमें पड़कर उसके लिये आकुलित होते हैं यहांतक कि अन्याय प्रवृत्ति भी करलेते हैं । सम्यग्दृष्टी जीव बाहरी सामग्रीसे इतना नहीं भूलते जो वन्तु स्वसको न ध्यान रखें किन्तु वे भी कवायोंके उदयके प्रमाण रागो द्वेपो हो ही जाते हैं-चे मी प्रवृत्ति मार्गमें स्त्री, घन, एथ्यो आदिमें गग करलेते व उनकी वृद्धि व रक्षा अच्छी तरह करते है। इस तरह यह सिद्ध है कि पुण्य अंतरंग काही वाहको जगाने में प्रबल निमित्त सामने रख देते हैं, यदि ऐसा न हो तो कोई भी विषयमोगोंमें रति न करे । इसलिये ये पुण्यकर्म ही बार बढ़ाने के कारण होनाते हैं अतः अहणकरनेयोग्य नहीं है। तब जिप्त शुभ उपयोगसे पुण्यफमेशा बंध होता है वह भी उपादेयं नहीं है। उपादेय एक शुद्धोपयोग है जो कर्मका नाशक है, विपयदाहको शांतिकारक तथा निगानन्दका प्रवर्तक है इसलिये इसकी ही भावना निरन्तर कर्वष्य है, यह भाव है ॥ ७८ ॥
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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