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________________ mamaAAMANAPAN २८६] श्रीप्रवचनसार भापाटीको। सामान्यार्थ-मुखियोंके समान रति करते हुए इन्द्र तथा चक्रवर्ती भादिक शुभ उपयोग के फलसे उत्पन्न हुए भोगोंके द्वारा शरीर आदिकी वृद्धि करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ-(कुलिसाउहचक्कघरा) देवे. न्द्र चक्रवर्ती आदिक (सुहिदा इव अभिरदा) मानों मुखी हैं ऐसे आशक्त होते हुए(सुहोवओगप्पगेहिं भोगेहिं) शुभोपयोगके द्वारा पैदा हुए व प्राप्त हुए भोगोंसे विक्रिया करते हुए ( हादीण) शरीर परिवार आदिकी (विद्धिं करेंति) बढ़ती करते हैं। यहां यह अर्थ हैं कि जो परम अतिशयरूप वृप्तिको देनेवाला विषयोंकी तृष्णाको नाश करनेवाला स्वामाविक सुख है उसको न पाते हुए जीव जैसे नोंई विकारवाले खून में आशक्त हो जाती हैं वैसे आशक्त होकर मुखामासमें सुख मानते हुए देह मादिकी वृद्धि करते हैं। इससे यह जाना जाता है कि उन इन्द्र व चक्रवर्ती आदि बड़े पुण्यवान जीवों के भी स्वाभाविक सुख नहीं है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्य ने बड़े २ इन्द्र व चक्रवर्ती भादि जीवोंकी अवस्था बताई है कि इन जीवोंने पूर्व भवमें शुमो:पयोगके द्वारा बहुत पुण्य वध किया था जिससे ये ऊंचे पदमें माए तथा पुण्यके उदयसे मनोज्ञ इंद्रियों के विषय प्राप्त किये। अब वे अज्ञानसे ऐमा जानकर कि इन विषयोंके भोग सुख होगा उन पदार्थों में आशक्त होकर उनको भोग लेते हैं, परन्तु इससे उनकी विषयचाह शांत नहीं होती, क्षणिक कुछ बाधा कम हो जाती है उसको ये अज्ञानी जीव सुख मान लेते हैं, परन्तु पीछे और अधिक तृष्णामें पड़कर चिंतावान हो जाने हैं।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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