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________________ अभिवचनसार भाषादीका २७५ देश किया गया है। ऐसे अतींद्रिय सुखको न पाकर (ते देहवेदणट्टा ) वे देवादिक शरीरकी वेदनासे पीड़ित होते हुए (रम्मेसु. विप्तयेसु रमति ) रमणीक दिखनेवाले इंद्रिय विषयों में रमन करते हैं। इसका विस्तार यह है कि-संसारका मुख इस तरहफा है कि जैसे कोई पुरुष किसी वनमें हो-हाथी उसके पीछे दौड़े, वह घबड़ाकर ऐसे अंधकूपमें गिर पड़े निसके नीचे महा मनगर मुख फाड़े बैंठा हो व चार कोनोम चार सांप मुख फैलाए बैठे हों । और वह पुरुष उस कूपमें लगे हुए वृक्षकी शाखाको पकड़कर कटक नावे निस शाखाकी जड़को सफेद और काले चूहे काट रहे हों तथा उस वृक्षमें मधु मक्खियोंका छत्ता लगा हो जिसकी मक्खियां उसके शरीरमें चिपट रहीं हों, हाथी ऊपरसे मार रहा हो. ऐसी विपत्तिमें पड़ाहुआ यदि वह मधुके छत्तेसे गिरती हुई मधुवूदके स्वादको लेता हुआ अपनेको सुखी माने तो जाकी मूर्खता है क्योंकि वह शीघ्र ही पमें पड़कर मरणको प्रातः करेगा यह दृष्टांत है । इसका दाष्ट्रांत यह है कि यह संसाररूपी महा बन है जिसमें मिथ्यादर्शन भादि कुमार्गमें पड़ा हुआ कोई जीव मरणरूपी हाथीके भयसे त्रासित होता हुआ किसी. शरीर. रूपी महा अंध कूपमें पड़े, मिस शरीररूपी कूपमें नीचे सातमा नरकरूपी अजगर हो व क्रोध मान माया लोभरूप चार सपं उस शरीररूपी कूएंके चार कोनों में बैठे हों ऐसे शरीररूपी कूपमें वह जीव भायु कर्मरूपी वृक्षकी शाखामें लटक भने निस. शाखाकी नड़को शुक्ल कृष्णपक्षरूपी चूठे निरंतर काट रहे हों व उसके शरीरमें मधुमक्खियोंके समान अनेक रोग कग रहे हो तथा मरण
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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