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________________ २७२] श्रीमवचनसार भाषाटीका । पगी हो जाता है। इस गाथा भाचार्यने व्यवहार चारित्रका वर्णन कर दिया है। शुभोपयोग; वर्तन करनेसे उपयोग मशु. भोपयोग बचा रहता है. तथा यह शुभोपयोग शुद्धोपयोगमें चढ़ने के लिये मध्यकी सीढ़ी है। इसलिये शुद्धोपयोगकी भावना करते हुए शुभोपयोगमे वर्तन करना चाहिये । वास्तवमें शुभोपयोग सम्यग्दृष्टीके ही होता है मैसा पहले कहा भाचुका है, परन्तु गौणतासे अर्थात् मोक्षमार्ग, परिणमन रूपसे नहीं किन्तु पुण्यबंधकी अपेक्षासे मिथ्यादृष्टीके भी होता है इसी शुभोपयोगसे मिथ्यात्वी द्रव्यलिंगी मुनि नौ ग्रेवेयकतक व अन्य भेपोमुनि बारहवें स्वर्गतक जासका है। तात्पर्य यह है कि शुद्धोपयोगको ही उपादेय मानके उसीकी भावनाकी प्राप्तिके लिये मरहंत भक्ति आदि शुभोपयोगके मार्गमें वर्तना चाहिये ॥७॥ . . उत्थानिका-भागे बताते हैं कि पूर्व गांथामें कथित शुभोपयोगके द्वारा नो पुण्यकर्म बन्ध जाता है उसके उदयसे इंद्रियसुख प्राप्त होता है-यह पराधीनता इंद्रिय खमें हैजुत्तो सुहेण आदा, तिरियो व माणुसोया देवो वा। भूदो तापदि कालं, लहदि सुहं इंदियं विविहं ॥४॥ युक्तः शुभेन आत्मा तिर्यग्वा मानुषो वा देवो था । भूतस्तावत्कालं लभते सुखमैन्द्रियं विविधम् ।। ७४ ॥ सामान्यार्थ-शुभोपयोगसे युक्त मात्मा मनुष्य, या देव या तिथंच होकर उतने, कालतक नाना प्रकार इंद्रियभोग सम्बंधी मुखको भोगता है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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