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________________ MAnmom २५४] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। वे देव दुःखी होकर दुःखका अनुभव करते हैं । शरीर तो दोनों अवस्थाओंमें एकसा रहता है तथापि यह मात्मा अपनी ही कपायकी परिणति में परिणमनकर सुखी या दुःखी होजाता है। शरीर तो एक निमित्त कारण है-समर्थ कारण नहीं है । वलवान कारण कषायकी तीव्रता है । सांसारिक सुख या दुःखके होने में रागद्वेषकी तीव्रता कारण है । जब राग अति तीव्र होता है तब सांसारिक सुख और जब द्वेष अति तीव्र होता है तब सांसारिक दुःख मनुभवमें आता है। जब किसी इष्ट विषयके मिलने में असफलता होती है तब उस वियोगसे द्वेषभाव होता है कि यह वियोग इटें निससे परिणाम बहुत ही संक्लेशरूप होनाते हैं उसी समय अरति शोक, नो कषायका लीव उदय होता आता है बस यह प्राणी दुःखका अनुभव करता है कभी किसी अनिष्ट पदार्थसे द्वेषभाव होता है तब उसका संयोग न हो यह भाव होता है तब ही भय तथा जुगुप्सा नोकषायका तीव्र उदय होता है इसी समय यह कषायवान जीव दुःखका अनुभव करता है। वीतराग केवली भगवान के कोई कषाय नहीं है इसीसे परमौदारिक शरीर होते हुए भी न कोई सांसारिक सुख है न दुःख है। यह कषायोंके उदयका कारण है जो चारित्र और सुख गुणको विपरीत परिणमा देता है । जब संगकी तीव्रता होती है तब सुख गुणका विपरीत परिणमन इंद्रिय सुखरूप और जन द्वेषकी तीव्रता होती है तब उस गुणका दुःखरूप परिणमन होता है। कषायोंमें माया, लोभ, हास्य, रति, तीनों वेद राग तथा क्रोध, मांग, 'अरति, शोक, भय, जुगुप्सा द्वेष कहलाते हैं ! ये कंपायरूप राग
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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