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________________ श्रीमवचनसार भापाटीका । [ २४९ अन्वय सहित विशेषार्थ - ( अप्पा ) यह संसारी आत्मा ( फासेहिं ) स्पर्शन मादि इंद्रियोंसे रहित शुद्धात्मतत्व से विलक्षण स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके द्वारा ( समस्सिदे ) भले प्रकार ग्रहण करने योग्य ( इठ्ठे विसये ) अपनेको इण्ट ऐसे विषयभोगोंको ( पय्या) पाकर के या ग्रहण करके ( सहावेण परिणाममाणो ) अनन्त सुखका उपादान कारण जो शुद्ध आत्माका स्वभाव उससे विरुद्ध अशुद्ध सुखका उगदान कारण जो अशुद्ध आत्मस्वभाव उससे परिणमन करता हुआ ( मथमेव ) स्वयं ही (सुई) इन्द्रिय सुखरूप हो जाता है या परिणमन कर जाता है, तथा ( देहो ण हवदि) शरीर अचेतन होनेसे सुखरूप नहीं होता है। यहां यह अर्थ है कि कम आवरणसे मैले संसारी जीवोंके जो इन्द्रियसुख होता है वहां भी जीव ही उपादान कारण है शरीर उपादान कारण नहीं है । जो देह रहित व कर्मबंध रहित मुक्त जीव हैं 1 उनको जो अनन्त अतीन्द्रियसुख है वहां तो विशेष करके आत्मा ही कारण है । भावार्थ-यहां माचार्य कहते हैं कि शरीर व उसके आश्रित जो जड़रूप द्रव्यइन्द्रिय तथा बाहरी पदार्थ हैं इन किसी में भी सुख नहीं है । इन्द्रियसुख भी संसारी आत्माके अशुद्ध भावसे ही अनुभव में आता है। यह संसारी जीव पहले तो इन्द्रियसुख भोगनेकी तृष्णा करता है फिर उस चाहकी दाहको न सह सकने के कारण जिनकी तरफ यह कल्पना उठती है कि अमुक पदार्थको ग्रहण करनेसे सुख भासेगा उस इष्ट पदार्थको इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण करनेकी या भोगनेकी चेष्ठा करता है-यदि
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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