SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२४५ उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जब तक इंद्रियों के द्वारा यह प्राणी विषयों के व्यापार करता रहता है तब तक इनको दुःख ही है। जेसिं विसयेसु रदी, तेसिं दुक्खं वियाण सम्भावं। जदितं णहि सम्भावं, वावारोणस्थि विसयत्य।१६॥ यां विषयेषु रतिस्तेषां दुःखं विजानीहि स्वाभावम् । यदि तन हि स्वमावो ध्यापारो नास्ति विषयार्थम् ॥६६॥ सामान्यार्थ-जिन जीवोंकी विषयों में प्रीति है उनको स्वाभाविक दुःख जानो । यदि वह इंद्रियनन्य दुःख स्वभावसे न होवे तो विषयोंके सेवनके लिये व्यापार न होवे । अन्वय सहित विशेषार्थ-(जेसिं विप्तयेसुरदी) जिन जीवोंकी विषयरहित अतींद्रिय परमात्म स्वरूपसे विपरीत इंद्रियों के विषयोंमें प्रीति होती है ( तेसिं समावं दुक्ख वियाण ) उनको स्वाभाविक दुःख जानो अर्थात उन बहिर्मुख मिथ्यादृष्टी नीवोंको अपने शुद्ध आत्मद्रव्यके अनुभवसे उत्पन्न उपाधि रहित निश्चय सुखसे विपरीत स्वभावसे ही दुःख होता है ऐसा जानो (जदि । समावं ण हि) यदि वह दुःख स्वभावसे निश्चयकर न होवे तो (विसयत्थं वावारो णत्थि) विषयों के लिये व्यापार न होवे । जैसे रोगसे पीड़ित होनेवालोंके ही लिये औषधिका सेवन होता है बैसे ही इंद्रियों के विषयोंके सेवने के लिये ही व्यापार दिखाई देता है । इसीसे ही यह माना जाता है कि दुःख है ऐसा अभिप्राय है । भावार्थ-इस गाथाने आचार्यने यह दिखलाया है कि
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy