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________________ श्रीमवचनसार भाषाटीका। [२४३ तृप्ति न पाते हुए व अपने ज्ञानके द्वारा पदार्थके स्वरूपको विचारते हुए विषयभोगोंसे त्यागबुद्धि करते हैं। फिर भी विषयोंमें रम जाते हैं । पिर ज्ञानबलसे विचारकर त्याग बुद्धि करते हैं । इस तरह वारवार होते रहने से जव भेदज्ञानके द्वारा चारित्रमोहका बल घट जाता है तब वैराग्यवान हो भोग त्याग योग धारण करके आत्मरसफा पान करते हैं । बड़े बड़े पुरुपको भी मनोज्ञ सामग्री की पप्ति होते हुए भी इन विषयभोगोंसे कभी तृप्ति नहीं होती है, तो फिर जो अल्प पुण्यवान हैं जिनको इष्ट सामनोका मिलना दुर्लभ है उनकी पोडाका नाश किस तरह होना संभव है ? कभी नहीं होता । जो मिथ्यादृष्टी पड़े मनुष्य तथा देव हैं के तो सम्यग्ज्ञानके विना सच्चे सुखको न समझते हुए इद्रिसहारा ज्ञान तथा सुखको ही ग्रहण करने योग्य मानते हैं और इसी बुद्धिसे रात दिन विषयोंकी चाहकी दाहसे जलते रहते है। पुण्य के उदयसे इच्छित पदार्थ मिलनेपर उनमें लवलीन होजाते हैं । यदि इच्छित पदार्थ नहीं मिलते हैं तो उनके उद्यम करने में निरंतर माकुलित रहते हैं । जो अप पुण्यवान व पापी मनुष्य या हीन देव हैं वे स्वयं इच्छित पदाथों को न पाते हुए उनके यथाशक्ति उद्यम करने में तथा द्वारे पुण्यवानोंको देखकर ईर्षा करने में लगे रहते हैं जिससे महा मानसिक वेदना उठाते हैं । पापी मनुप्य यदि कभी कोई इष्ट पदार्थका समागम भी पालेते हैं तो उनको उस पदाथसे शीघ्र ही विवोग होनाता है व संयोग रहनेपर भी वे उनके भोग उपभोग करने में अशक्य होजाते हैं । इस कारण दुखी रहते हैं । यहां गाथा, नारकी और तिर्यचोंका नम इस
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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