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________________ ___ श्रीप्रवचनसार भाषाटीका। [२१९ तरहसे ग्रहण करने योग्य अनंत सुखका उपादान कारण जो केवलज्ञान है सो ही एक समयमें सब वस्तुओं को जानता हुआ जीवके लिये सुखका कारण होता है तैसे यह इन्द्रिय ज्ञान अपने विषयोंको . भी एक समयमें जान न सकनेके कारणसे सुखका करण नहीं है। भावार्थ-यहांपर आचार्यने इन्द्रियनित ज्ञानकी निवलताको प्रगट किया है और दिखलाया है कि इस कर्मबंध सहित संसारी आत्माकी ज्ञानशक्तिके ऊपर ऐसा आवरण पड़ा हुआ है जिसके कारणसे इसको क्षयोपशम इतना कम है कि पांचों इन्द्रियोंके एक शरीरमें रहते हुए भी यह क्षयोपशमिक ज्ञान अपने उपयोगसे एक समयमें एक ही इंद्रियके द्वारा काम कर सकता है। जब स्पर्शसे छूकर जानता है तब स्वादने आदिका काम नहीं कर सक्ता, जब स्वाद लेता है तब अन्य स्पर्शादि नहीं कर सक्ता है। उपयोगकी चंचलता और पलटन इतनी जल्दी होती है कि. हमको पता नहीं चलता है कि इनका काम भिन्न ९ समयमें होता है। हमको कभी कभी यह भ्रम होनाता है कि हमारी कई इंद्रियें एक साथ काम कर रही हैं । जैसे काककी दो आंखें होनेपर भी पुतली एक है वह इतनी जल्दी पलटती है कि हमको उसकी दो पुतलियों का भ्रम हो जाता है। उपयोग पांच इन्द्रिय और नो इन्द्रिय मन इन छः सहायकोंके द्वारा एक साथ काम नहीं कर सक्ता, जब मनसे विचारता है तब इंद्रियोंसे ग्रहण बन्द हो जाता है । यद्यपि यह भिन्नर समय में अपने विषयको ग्रहण करती है तथापि यह सामनेके कुछ स्थूल विषयको जान सक्तो हैं न यह सुक्ष्मको जान सक्तीं और न दूरवर्ती पदार्थोंको जान सकी
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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