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________________ २१०] श्रीप्रवचनसार भाषाटीका । दियं । प्रतींद्रिय है (च) तथा (मुत्त) जो मूर्तीक है सो इंद्रिय), इंदिर अन्य ( अस्थि ) है ( वधा च सोक्ख ) तैसे ही मर्यात् ज्ञानही तरह अमूर्तीक सुख अतिन्द्रिय है नथा मूर्तीक सुख इंद्रिय जन्य मनुज परं) इन ज्ञान और सुखों में जो उत्कृष्ट अतींद्रिय हैं (:-* णेयं उनको ही उपादेय हैं ऐसा मानना चाहिये। इसका विस्तार गह हैं कि अमुर्तीक, क्षायिक, अतींद्रिय, चिदानन्दलक्षण स्वरूप शुद्धात्माकी शक्तियोंसे उत्पन्न होनेवाला अंजीद्रिय ज्ञान और सुख आत्माके ही आधीन होनेसे अविनाशी है इससे उपादेय है तथा पूर्वमें कहे हुए अमुर्त शुद्ध आत्माको शक्तिसे विल क्षण को क्षयोपशमिक इन्द्रियोंकी शक्तियोंसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान पर सुख हैं वे पराधीन होनेसे विनाशवान हैं इस लिये हेय हैं ऐका लम्पर्य है। भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने इस प्रकरणका प्रारम्भ करते हुए बताया है कि सचा अविनाशी तथा स्वाधीन सुल अर्हत है जो माना ही स्वभाव है और आन्नामें आप ही अपनी सन्मुखतासे अनुभवमें आता है। यही सुख अमूर्ती है क्योंकि अमूर्तीक आत्माला यह स्वभाव है। शुद्ध आत्मामें इस सुखका निरंतर विकाश रहता है । मिस ताह केवल लज्ञान अतीन्द्रिय तथा अमूर्तीक होनेसे भामाका स्वभाव आत्माके माधीन है ऐसे ही अतीन्द्रिय सुखको जानना चाहिये । से केवलज्ञानकी महिमा पहले कह चुके हैं वैसे अम अतीन्द्रिय आत्मसुखकी महिमाको जानना चाहिये क्योंकि ये ज्ञान और सुख दोनों निज आत्माकी सम्पत्ति है । इन पर अपना ही स्वत्य है ।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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