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________________ २०६] श्रीप्रवचनसार भापाटीका। दृष्टिके प्रतापसे जगतको उनके स्वरूप तथा परिवर्तन रूप देखते रहना चाहिये तथा फर्मोके उदयसे जो दुःख 'सुखरूप अवस्था अपनी हो अथया दूसरोंकी हो उनको भी ज्ञाता दृष्टारूप ही देख नान लेना चाहिये उनमें अपनी समताका नाश न करना चाहिये । जो सम्यग्ज्ञानी तत्त्वविचारके अभ्याससे कर्मोके उदयमें विष कविचय धर्मध्यान करते हैं, उनके पूर्वके उदयमें आए कर्म अधिक परिमाणमें झड़ जाते हैं और नवीन कर्म बहुत ही अल्प बंध होते हैं जिसको सम्यग्दृष्टिषोंकी महिमाके कथनमें भबंध ही कहा है । समभाव सदा गुणकारी है। हमें शुद्धोपयोगरूप साम्यभावका सदा ही अनुभव करना चाहिये । यही बंधकी निरा, संवर तथा मोक्षका साधक और केवलज्ञानका उत्पादक है । वास्तवमें ज्ञान ज्ञानरूप ही परिणमता है, अपनी ज्ञान परिणमतिको ही ग्रहण करता है तथा जनभावलय ही पैदा होता है । यह मोहका महात्म्य है जिससे हम अज्ञानी जानते हुए भी किसीसे रागकर उसको ग्रहण १२ किले वेषकर उससे घृणा करते व उसे त्याग करने हैं। ज्ञानमें न ग्रहण है न त्याग है । मोह प्रपंचके त्यागका उपाय आत्मानुभव है यही कर्तव्य है। इस तरह रागद्वेष मोह रदित होनेसे फेवलज्ञानियोंके बंध नहीं होता है ऐसा कथन करते हुए ज्ञान प्रपची समाप्तिकी मुख्यता करके एक सूत्र द्वारा माठवां स्थल पूर्ण हुआ ।। ५२ ॥ उत्थानिका-मागे ज्ञान प्रपंचके व्याख्यानके पंछे ज्ञानके आधार सर्वज्ञ भगवानको नमस्कार करने हैं ।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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