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________________ १८८] श्रीमवचनसार भाषाटीका। यहां आत्मामें स्वाभाविक अतीन्द्रिय अनन्त सुख' प्रगट होगयो है। केवलज्ञान और अनंत सुखका अविनाभाव सम्बन्ध है। संसारी नीव जिस सुखको न पाकर सदा वनमें जलके लिये भटकते हुए मृगकी तरह तृषातुर रहते हैं वह स्वाभाविक मुख इस अवस्थामें ही पूर्णपने प्राप्त होजाता है। इसीतरह अनंत वीर्य आदि और भी आत्माके अनंत गुण व्यक्त होनाते हैं। ऐसे निर्मल ज्ञानके प्राप्त करनेका उत्साह रखकर भव्य जीवको उचित है कि इसकी प्रगटताका हेतु जो शुद्धोपयोग या साम्यमाव या स्वात्मा-नुभव है उसीकी भावना करे तथा उसीके द्वारा सर्व संकल्प विकल्प त्याग निश्चिन्त हो निज आत्माके रसका स्वाद ले तृप्त हो । यही अभिप्राय है ।। ४७ ॥ उत्थानिका-आगे आचार्य विचारते हैं कि भो ज्ञान सर्वको नहीं जानता है वह ज्ञान एक पदार्थको भी नहीं जान सका है। जो ण विजाणदि जुगवं, अत्थे तेकालिके . . तिहुक्णत्थे। णाईं तस्स ण सक, सपज्जयं दध्यमे या ॥ १८॥ यो न विज्ञानाति युगपदर्शान अकालिकान् निभुवनस्पान् । ज्ञातुं तस्य न शक्यं सपर्ययं द्रव्यमेकं वा ॥ ४ ॥ सामान्यार्थ-जो कोई एक समयमें तीनलोककी त्रिका-लवतीपर्यायोंमें परिणत हुए पदार्थोंको नहीं जानता है-उसका ज्ञान समस्त पर्याय सहित एक व्यके भी जाननेको समर्थ नहीं है।
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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