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________________ श्रीभवचनसार भाषाटीका । ।१७६ हैं यही अपने उदयसे निर्बल आत्मामें विकार पैदा कर सकता है। जब इसका उदय नहीं है वहां अन्य कर्मका.. उदय ; हो वा मत हो, आत्माका न कुछ बिगाड़ है 'न सुधार है। ऐसा जानकर कि मोह रागद्वेष ही बन्धके कारण हैं हम छद्मन्थ संसारी. जीवोंका यह कर्तव्य है कि हम इनको दूर करने के लिये निरन्तर शुद्ध आत्माकी भावना रखें तथा:साम्यभावमें वर्तन करें तथा जब जब पाप या पुण्यकर्म अपना अपना फल दिखलावें तत्र तब. हम उन फर्मोके फलमें रागद्वेष न करें-समताभावसे ज्ञाता दृष्टा रहते हुए भोगलें, इसका फक यह होगा कि हमारे नवीन कर्म, बन्ध नहीं होगा-अथवा यदि होगा तो बहुत अल्प होगा तथा : हमारे भावों में पापके उदयसे माकुलता और पुण्यके उदयसे उद्धवता नहीं होगी । जो पापके उदयों में दुःखी ऐसा भाव तथा. पुण्यके उदयमें में सुखी ऐसा · अहंकारमई भाव करता है वही विकारी होता है और तीव्र बन्धको प्राप्त करता है। सतएव हमको साम्यभावका अभ्यास करना चाहिये ॥ ४५ ॥ ... ___उत्थानिका आगे भैसे मरहतोंके शुभ व अशुभ परिणामके विकार नहीं होते हैं तैसे. ही एकान्तसे संसारी जीवोंके भी नहीं होते ऐसे सांख्यमतके अनुसार चलनेवाले शिप्यने अपना पूर्वपक्ष किया उसको दुषण देते हुए समाधान करते हैं-अथवा केवली भगवानोंकी तरह सर्व ही संसारी जीवोंके स्वभावके घातकाः अभाव है इस बातका निषेध करते हैंजदि सो सुहो व असुहो, ण हवदि आंदा संयं . सहावेण ।'
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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