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________________ · - श्रीमवचनसार भाषाटीका । अनन्तानुबंधी जो मिथ्यात्वके सहकारी हों तथा स्वरूपाचरण चारित्रको, रोके । : अप्रत्याख्यानावरणीय जो श्रावकके एक देश त्यागको न होने दे । [ १६९ और सम्यक्त 2 प्रत्याख्यानावरणीय - जो मुनिके सर्वेदेश त्यागको न होने दे । खंज्वलन - यथाख्यातचारित्रको न होने दें । मिथ्यात्वको मोह कहते हैं । जो मिथ्यादृष्टी अज्ञानी बहि ፡ " 1 रात्मा है वह हरएक कर्मके उदयमें अच्छी तरह राग व द्वेष करता है तथा रागद्वेष सहित ही पदार्थोंको जानता है। जानकर भी रागद्वेष करता है । यह मोही जीव शरीर व शरीरके इन्द्रिय जति सुखको ही उपादेय मानता है तथा उसकी उत्पत्तिके कारणों में राग और उसके विरोधके कारणों में द्वेष करता है । इस लिये विशेष कर्मोका बन्ध यह मिथ्यादृष्टी ही करता है । अनंत संसार में भ्रमणका कारण यह मिथ्याभाव है। जिसके अनंतानुबंधी कषाय के साथ दर्शन मोह चला जाता है वह सम्यग्दृष्टी व सम्यज्ञानी हो जाता है । तब मात्र वारह प्रकारकी कषायका उदय रहता है। सम्यग्दृष्टी के अंतरंगमें परम वैराग्य भाव रहता है, वह अतीन्द्रिय आनन्दको ही उपादेय मानता है- आत्मस्वरूपमें वर्तन करनेकी ही रुचि रखता है। तो भी जैसा जैसा कषायका उदय होता है वैसा वैसा अधिक या कम रागद्वेष होता है । सम्यक्ती इस परिणतिको भी मिटाना चाहता है, परंतु आत्मशकिकी व ज्ञानशक्तिकी प्रबलता विना रागद्वेषको बिलकुल दूर नहीं
SR No.009945
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 01 Gyantattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages394
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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